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करणी मां देशनोक

करणी मां देशनोक
सन् 1386 की बात है। जोधपुर जिले के सुवाप गांव में मेहाजी किनिया के घर उत्सव का माहौल था, क्योंकि उनकी पत्नी देवल देवी आढ़ा के छठी सन्तान होने वाली थी तथा पहले से पांच पुत्रियों के होने के कारण इस बार सभी को पूरा विश्वास था कि पुत्र ही होगा और इस सम्बन्ध में उत्सव की समस्त तैयारियों के साथ दो दाइयों मोदी मोलाणी व आक्खां इन्द्राणी को भी बुलवा लिया गया था।

परन्तु न केवल वह दिन बीत गया, बल्कि सप्ताह व माह भी बीत गया।

इस प्रकार नौ माह बीत जाने के बाद भी प्रसव नहीं हो रहा था, जिससे सभी बेहद चिन्तातुर हो उठे थे। धीरे-धीरे एक-दो नहीं वरन दस माह और बीत गए, मगर फिर भी प्रसव नहीं हुआ।

यह देखकर मोदी मोलाणी नामक दाई तो निराश होकर वापिस चली गई, मगर आक्खां इन्द्राणी पूर्ण आस्था व भक्ति-भाव के साथ वहीं रुकी रही, क्योंकि उसे विश्वास था कि गर्भ में पल रही असाधारण सन्तान अभी जीवित है, इसलिए जन्म जरूर लेगी।

ईस्वी सन् 1387 आ चुका था। यह वही वर्ष था, जब तैमूर ने असफहान वालों के कत्लेआम के बाद अपनी क्रूर फौजों के साथ फारस विजय हेतु दंभ से मस्तक उठाकर प्रस्थान कर दिया था तथा भारतीय उपमहाद्वीप में भी इस समय बड़ी भारी उथल-पुथल होती जा रही थी।

दिल्ली में फिरोजशाह तुगलक का तीसरा पुत्र मुहम्मदशाह नासिरुद्दीन मुहम्मदशाह की उपाधि धारण कर बादशाह बन चुका था।

आखिरकर गर्भावस्था के 21 माह बीत जाने के बाद 20 सितम्बर 1387 को आश्विन शुक्ला 7 के दिन देवल देवी के प्रसव हुआ, मगर लड़की ही हुई, जिसे देखकर कुछ अल्पबुद्धि वाले बेहद निराश हो उठे थे, मगर उनको यह मालूम नहीं था कि यह लड़की साधारण नहीं है, अपितु प्रकृति से अपार क्षमताएं प्राप्त कर धरती पर दुख से किलबिलाते लोगों को मुक्ति का मार्ग बताने हेतु स्वयं भगवती हीआई है।

कहा जाता है कि इस प्रकार पुन: लड़की होने पर मेहाजी की बहन ने अपने हाथ से उसके सिर पर डोचा मारा तो तत्काल ही उसकी अंगुलियां चिपककर रह गई थीं, फिर तो सभी को विश्वास हो गया कि यह लड़की साधारण नहीं है, अपितु ईश्वरीय क्षमताओं युक्त अवतारी शक्ति ही है।

यह बात उस मांगळियावटी क्षेत्र में, जहां राजस्थान के पांच पीरों में से एक मेहोजी मांगळिया के वंशजों की छोटी-मोटी जागीरें हुआ करती थीं, सर्वत्र पसर गई।

लोग-बाग उस कन्या के दर्शन को आने लगे थे, जिसे घर में रिधु कहकर पुकारा जाता था।

जब यह कन्या एक वर्ष की हुई, भारत देश संक्रमण-काल से गुजर रहा था। 20 सितम्बर को 80 वर्षीय बादशाह फीरोज तुगलक, जो कि क्रूर व धर्मान्ध की श्रेणी में आता था, चल बसा था। तब उसके नाती फतेह खां का पुत्र तुगलक शाह ‘गयासुद्दीन तुगलक द्वितीय’ की उपाधि के साथ गद्दी पर बैठा, मगर इसने शासन चलाने के स्थान पर सुरा-सुन्दरी की ओर ही सारा ध्यान दिया, जिससे न केवल प्रजा दुखी हुई, बल्कि सुलतान के अमीर भी परेशान हो उठे थे।

बड़ी हास्यप्रद बात थी कि इस समय दिल्ली के अधीन राज्य में केवल कुछ गांव ही हुआ करते थे और वहां भी अराजकता ही व्याप्त थी। दिल्ली में यह अराजकता अगले 62 वर्षों तक छाई रही थी।

इसी वर्ष बूंदी के राव नरपाल का निधन हो जाने पर उसका पुत्र हम्मीर यानी हामा गद्दी पर बैठा था। यह वही हम्मीर था, जिसने बूंदी के पास शेरगढ़ के पंवारों से लोहा लिया था, क्योंकि पंवारों ने इसके पिता नरपाल की गणगौर को लूट लिया था। अंत समय में यह अपने पुत्र वीरसिंह को राज्य देकर सन्यास लेकर काशी चला गया और वहीं परलोक सिधारा।

किनिया परिवार की रिधु जब दूसरे वर्ष में थी, राजस्थान के उस छोर में स्थित बंबावदा के हाड़ा महादेव मन्दिर में मैनाल का शिलालेख स्थापित किया जा रहा था तथा राष्ट्र की धुरी दिल्ली में सुलतान गयासुद्दीन तुगलक द्वितीय के अवसान के बाद उसके पुत्र मुहम्मदशाह का राज्याभिषेक किया जा रहा था।

यह वही वर्ष था, जब यह दिवंगत फीरोज तुगलक के पुत्र सुलतान मुहम्मद के दास मलिक सरवर को दिल्ली सल्तनत का वजीर बनाया गया था।

माता देवल देवी की प्रिय पुत्री रिधु के चौथे वर्ष में देश में एक सूर्य और उदित हुआ, जब इस वर्ष यानी ईस्वी सन् 1391 की ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन सोमवार को कबीर का जन्म हुआ। (कहीं-कहीं उल्लेखित है कि कबीर का जन्म सन् 1399 में हुआ था।)

इसी साल जफर खां गुजरात का सूबेदार बना, जो कि पहले एक राजपूत हुआ करता था। अगले ही वर्ष संसार भर में तैमूर नामक क्रूर राक्षस की धमक सुनाई दी, जब उसने शीराज के बादशाह मुजफ्फर को मारकर ईरान के मुल्कों पर अधिकार कर लिया था तथा बगदाद व गुर्जिस्तान को जीतने के लिए आगे बढ़ चला था।

सन् 1393 के आगमन के साथ ही रिधु नामक उस चारण कन्या ने सातवें वर्ष में प्रवेश कर लिया था तथा नादानगी व नासमझी की इस उम्र में भी उसने अपने पिता मेहाजी को चमत्कारिक रूप से सर्प-दंश से बचा लिया था। एक बालिका के स्पर्श मात्र से सर्प के भयंकर जहर के तत्काल उतर जाने की यह बात तत्कालीन राजस्थान में सर्वत्र व्याप्त हो गई थी।

इस वर्ष राज्य, देश व संसार में कई उल्लेखनीय घटनाएं घटी थीं। मल्लीनाथ राठौड़ की मृत्यु के बाद इसके पुत्र जगमाल को गद्दी से हटाकर इसके छोटे भाई का पुत्र चूंडा शासक बन गया तथा इन्दा के पडि़हार, जांगलू के सांखला व जोहिया राजपूतों के सहयोग से उसने महवे पर अधिकार कर लिया था।

यह वही वर्ष था, जब सोमसुन्दर सूरि जैसे सन्त का देलवाड़ा में आगमन सुनकर राणा लाखा, राजकुमार चूंडा व सचिव रामदेव उनके सामने अगवानी को गए थे।

इसी वर्ष जालौर पर बिहारी पठानों का अधिकार होता है, जिससे राजस्थान में नई सैन्य समीकरणों की स्थापना होती है।

इसी वर्ष 56 खंभों पर टिकी हुई व कभी ‘सीता रसोई’ के नाम से जानी जाने वाली कन्नौज की जामा-मस्जिद का निर्माण भी होता है। इसे हम निर्माण नहीं, बल्कि नाम परिवर्तन कहकर समझ सकते हैं।

अगले ही वर्ष मलिक सरवर द्वारा शर्की-वंश की स्थापना होती है तथा फीरोज के तीसरे पुत्र मुहम्मदशाह की मृत्यु हो जाने पर तुगलक वंश के अन्तिम शासक नासिरुद्दीन महमूद का राज्याभिषेक होता है। इन तुगलकों की क्षीणता व साम्राज्य की पतितावस्था को देखकर मंडोर पर राठौड़ों व पडि़हारों का द्वैध-अधिकार हो जाता है।

सन् 1395 में जब रिधु नौ साल की थी, पडि़हार राजकुमारी से विवाह के उपलक्ष्य में चूंडा राठौड़ को दहेज में मंडोर दे दिया जाता है, जिसे वह अपनी राजधानी बना लेता है।

अगले ही वर्ष सन् 1396 में गुजरात के सुलतान मुजफ्फरशाह द्वारा सोमनाथ के मन्दिर के विध्वंस के बाद सारा चढ़ावा लूट लिया गया था व बाद में इसी मुजफ्फर ने मंडोर को घेर लिया था, तब चूंडा ने संन्धि कर जान छुड़ाई थी।

इसी वर्ष जफर खां ने मेवाड़ पर हमला कर दिया था। उपरोक्त घटनाओं से हम राष्ट्र व राज्य की बदलती समीकरणों को समझ सकते हैं।

सन् 1411 में भांडा नामक एक ओसवाल महाजन बीकानेर में भांडाशाह जैन मन्दिर बनवाता है, इस समय करणी जी की आयु लगभग 24 वर्ष थी तथा वे अपने पीहर में गौ-सेवा कर साधारण जीवन जी रही थीं।

28 मार्च 1416 को भादवा बदी 8 को राव जोधा का जन्म होता है, इस समय करणी जी लगभग 29 साल की हो चुकी थी तथा इनके माता-पिता इनके लिए योग्य वर की तलाश किए जा रहे थे।

मगर अनेक बार प्रयास किए जाने पर भी मनोवांछित वर नहीं मिल पा रहा था, तब स्वयं करणी जी ने अपने पिता को साठिका गांव के माफीदार केलू के घर का सुझाव दिया।

मेहाजी किनिया अपनी पुत्री रिधु का रिश्ता लेकर साठिका गांव गए और विवाह तय हो गया।

केलू जी बरात धूमधाम से ले जाना चाह रहे थे, मगर उनके पुत्र देपाजी ने इस संदर्भ में इनकार कर दिया।

आसाढ़ सुदी 9, सन् 1416 को 29 वर्षीया रिधु का विवाह देपोजी के साथ सम्पन्न होता है।

मैं उनके विवाह की इस तिथि के संदर्भ में कुछ अनिश्चय में हूं। गिरधरजी रतनू या जगदीश जी रतनू के अलावा और किसी पर जल्दी से विश्वास भी नहीं कर सकता। इसे आप मेरा आग्रह कह सकते हैं। तत्काल प्रभाव से कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध भी नहीं है। वास्तविक तिथि याद भी नहीं आ रही है। गिरधरजी के अनुसार करणी जी का विवाह माघ सुदी 7, संवत 1474 को हुआ था। करनी रूपक के अनुसार करणी जी के विवाह की यही तिथि है।

कहा जाता है कि करणी जी के विवाह के समय उनके ननिहाल वाले नहीं आए, जबकि उनको निमन्त्रण दे दिया गया था। इस सामाजिक अपमान को भी वह अलौकिक कन्या किसी लौकिक व असमर्थ व्यक्ति के समान ही पी गई। कहा जाता है कि उस समय करणी जी ने अपने उन ननिहाल वालों को श्राप दे दिया था, जिसके कारण वे आढ़ा अपने ही गांव से स्थानभ्रष्ट होकर इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे थे।

विवाह के उस अवसर पर यद्यपि देपाजी दहेज नहीं लेना चाह रहे थे, मगर करणी जी ने हठ कर 200 गायों को अपने साथ ले ही लिया। सुवाप से 15 किमी आगे चलने पर एक जगह पानी पीने के लिए वह काफिला रुकता है, तो देपोजी को अपनी नववधु के विराट रूप का दर्शन होता है, तो वे चमत्कृत रह जाते हैं। इस अवसर पर उस भावविभोर पति को वह पत्नी कहती है कि

‘मेरा जन्म भटके हुए लोगों को मार्ग दिखाने के लिए ही हुआ है, न कि सांसारिक उपभोगों के लिए!, तो तत्काल ही अपनी दुल्हन के सम्बन्ध में उनके समस्त भाव बदल गए थे।

ससुराल में आने के बाद सुहागथाल के अवसर पर सात सुहागनें सामाजिक क्षुद्रताओं व अहंकार के कारण नहीं आई तो देवी का क्रोध श्राप के रूप में प्रस्फुटित हुआ तथा पल्लवित व परिणित भी हुआ।

संवत 1474 (सन् 1417) के प्रारम्भ में करणी जी ने वंश-वृद्धि के लक्ष्य से अपनी बहिन गुलाब देवी से देपोजी का विवाह करवाया।

इस विवाह के अवसर पर करणी के आग्रह पर देपोजी ने वह सारा दहेज स्वीकार कर लिया, जिसे उन्होंने प्रथम विवाह के अवसर पर अस्वीकार कर दिया था।

गुलाब बाई को दहेज के रूप में बहुत सारा पशुधन भी दिया गया था।

करणी जी के विशाल गौ-दल के कारण अकाल से जूझ रहे साठिका गांव में जल-संकट की स्थिति हो गई थी। कुछ लोगों में इस बात का भारी रोष था।

वे बारी-बन्धी की व्यवस्था करवाना चाहते थे। यह बात सुनकर करणी जी ने साठिका से प्रस्थान का मानस बना लिया।

समझदार लोगों ने बहुत मनाया, लेकिन वे नहीं मानी और अपने चुने हुए सेवकों को गौ-दल हांकने का आदेश देकर करणी जी ने ईस्वी सन् 1418 में ज्येष्ठ सुदी 9 की दोपहर की तपती धूप में अपने परिवार सहित साठिका गांव छोड़ दिया व जांगलू की ओर प्रस्थान कर दिया।

इस समय बीकानेर की तो स्थापना भी नहीं हुई थी।

दूसरे दिन यानी ज्येष्ठ शुक्ल 10 की भोर के समय करणी जी ने अपने पशुधन सहित जांगलू प्रदेश के चारागाह में डेरे किए।

इस जांगल प्रदेश पर राव चूंडा राठौड़ के पुत्र कान्हा का शासन था, जो कि अत्यन्त उग्र, व्यभिचारी व आततायी था।

देवी करणी ने इस आततायी का वध कर प्रजा को राहत दिलाई और उसी कारण यह पद्य प्रचलन में आया –

‘कान्है लोपी कार, मत-हीणौ आयौ मरण।’

सचमुच इसके बाद बीकानेर के किसी राजा ने देवी करणी की अवज्ञा नहीं की थी।

राव कान्हा का दुमात भाई राव रिड़मल करणी जी का अनन्य भक्त था। उसकी पात्रता को देखकर करणी जी ने उसको आगे जाकर जांगलू का शासक बनाकर अपना आशीर्वाद भी दिया।

नेहड़ जी क्षेत्र में करणी जी की गायों के लिए मीठा पानी व हरा चारा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था, इसलिए उन्होंने यहीं पर अपना स्थायी आवास बनाने की ठानी।

इस नेहड़ी जी से पूर्व दिशा में थोड़ी दूर पर स्थित एक उत्तम स्थल को 32 वर्षीया करणी जी ने ईस्वी सन् 1419 की वैशाख शुक्ला 2, शनिवार को एक छोटी सी मढी बनाई, जो आज देशनोक के तेमड़ाराय मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है।

इस मढ़ी के ठीक सामने करणी जी ने अपना आवास बनाया।

इसी दिवस को देशनोक की स्थापना का दिन माना गया।

इसी वर्ष मेवाड़ के राणा लाखा की मृत्यु होती है व मोकल का राज्याभिषेक होता है तथा चूंडा द्वारा चित्तौड़ का परित्याग कर मांडू के बादशाह की शरण में जाने का घटनाक्रम संपादित होता है।

ईस्वी सन् 1430 को ज्येष्ठ सुदी 7 के दिन देवी करणी के आशीर्वाद से राव रिड़मल को जांगलू के राज्य की प्राप्ति होती है।

इस घटना के ठीक दो दिन पूर्व राणा मोकल अपना अन्तिम शिलालेख स्थापित करवाता है, जो अभी उदयपुर म्यूजियम में संरक्षित है।

सन् 1433 में देवी करणी लगभग 46 सालों की हो चुकी थीं। इसी वर्ष मेवाड़ में 17 वर्षीय कुंभा का राज्याभिषेक होता है व रणमल का चित्तौड़ जाकर हुंकार भरना होता है कि –

‘जब तक राणा मोकल के हत्यारों को मार नहीं दूंगा, अपने सिर पर पगड़ी नहीं बांधूंगा। ‘

इसी वर्ष के वैशाख माह में राणा कुंभा अपना प्रथम शिलालेख स्थापित करता है।

सन् 1437 में देवी करणी लगभग 50 सालों की हो चुकी थीं।

इसी वर्ष कुंभा मांडू पर हमला करता है तथा सारंगपुर के युद्ध में वहां के सुलतान महमूद को कैद कर चित्तौड़ ले आता है।

बीकानेर राज्य से मिलने वाली जन्मपत्रियों के अनुसार 5 अगस्त 1438 को सावन सुदी 15 को मंगलवार के दिन जोधा की सांखली रानी नौरंगदे के गर्भ से राव बीका का जन्म होता है।

इसी वर्ष चित्तौड़ में राव रणमल की हत्या होती है।

ईस्वी सन् 1439।

इस समय राव जोधा कावनी गांव में गाड़ा-बस्ती बनाकर निवास कर रहा था।

कार्तिक बदी 5 के दिन भाइयों व कुटुम्बियों द्वारा कावनी गांव में जोधा को मारवाड़ का राजा घोषित किया गया व अगले दिन राज्याभिषेक तय किया गया।

तब जोधा ने अपने एक दूत को त्वरित गति से देशनोक भेजा व करणी जी को कहलवाया कि वे इस अवसर पर पधारें, मगर वे स्वयं तो नहीं आ सकीं, पर अपने पुत्र पूनोजी को रवाना कर दिया।

राव जोधा के राज्याभिषेक के अवसर पर एकत्रित लोगों की प्रार्थना पर करणी जी के पुत्र पुण्यराज ने करणी जी की ओर से तिलक लगाया व भेंट के रूप में झाड़ी की पांच पत्तियां दी, जिनको राव जोधा ने अत्यन्त सम्मान के साथ अपनी पगड़ी में लगा लिया।

इस समारोह से मुक्त होते ही राव जोधा देशनोक आया व करणी जी का आशीर्वाद लिया।

इस घटनाक्रम से समझा जा सकता है कि राव जोधा के मन में देवी करणी के प्रति कितनी श्रद्धा थी ?

सन् 1440 में देवी करणी लगभग 53 सालों की हो चुकी थीं।

इसी वर्ष चित्तौड़ के किले में राणा कुंभा द्वारा मालवा के सुलतान महमूदशाह को परास्त करने के उपलक्ष्य में अपने ईष्टदेव विष्णु के निमित्त कीर्तिस्तंभ का निर्माण प्रारम्भ होता है।

सन् 1442 में देवी करणी 55 सालों की हो चुकी थीं।

इसी साल विजयनगर के दरबार में अब्दुर्ररज्जाक नामक पर्यटक व लेखक का आगमन होता है, राव सूजा का जन्म होता है, मुहम्मदशाह गुजरात का सुलतान बनता है, कुंभा हाड़ौती विजय करता है, मालवा का बादशाह मेवाड़ पर हमला करता है तथा फीरोजशाह तुगलक द्वारा जामा के पुत्र चांद को जबरन मुसलमान बनाया जाता है व कुमारपाल प्रबन्ध की रचना होती है।

समय द्रुत गति से गुजर रहा था व विभिन्न घटनाएं काल के पर्दे पर घटित होती जा रही थीं, जिसकी साक्षी थी देवी करणी।

ईस्वी सन् 1450 में बहलोल लोदी दिल्ली की सत्ता पर अधिकार कर लोदी-वंश की स्थापना करता है तथा सन् 1451 में भाद्रप्रद बदी 8 के दिन पीपासर गांव के लोहट जी परमार के पुत्र के रूप में जांभेजी का जन्म होता है।

ईस्वी सन् 1453 को देवी करणी राव जोधा को देशनोक बुलाती है, जो वह तत्काल ही प्रस्थान कर देशनोक आ पहुंचता है। जोधा के पहुंचने पर 66 वर्षीया करणी जी ने उससे कहा कि मंडोर पर हमला करने का समय अब आ गया है।

तब 700 राठौड़ों के साथ जोधा ने मंडोर की ओर प्रस्थान कर दिया।

एक लम्बे घटनाक्रम के बाद मंडोर पर राव जोधा का अधिकार हो जाता है।

इसी वर्ष मांडू का सुलतान महमूद कोटा-बूंदी पर हमला करता है। इस आक्रमण का कारण यह था कि हाड़ौती के राजपूत शासकों ने मांडू के अधीन क्षेत्र में लूटमार मचा दी थी।

अत: महमूद खिलजी उन्हें सजा देने आया था।

यह झड़प महूनी गांव में हुई, जिसमें राजपूतों की करारी हार हुई थी। उनकी स्त्रियां कैद कर मांडू भेज दी गई थीं।

ईस्वी सन् 1459 की बात है। जोधपुर किला बनाने की योजना व स्थान तय किए जा चुके थे।

राव जोधा ने देशनोक संदेश भेजकर देवी करणी को ससम्मान आमन्त्रित किया तो उन्होंने हामी भर दी।

करणी माता के आगमन को देखते हुए मेहरानगढ से मथानिया गांव तक स्वागत की पर्याप्त व्यवस्थाएं की गई।

राव जोधा अपने सरदारों के साथ करणी जी की अगवानी के लिए चौपासनी गांव तक सामने आया।

शुभ मुहुर्त में 12 मई के दिन ज्येष्ठ सुदी 11 को बुहस्पतिवार के दिन करणी माता के द्वारा जोधपुर के मेहरानगढ़ किले का शिलान्यास किया गया।

इस घटना के लगभग 20 दिनों बाद ही आसाढ़ बदी 2 को बीकानेर के सिंहथल गांव में लूणोजी बीठू ने आतताइयों के विरुद्ध प्राणोत्सर्ग कर दिया।

उनको उत्सर्ग की यह राह भी करणी जी ने ही दिखाई थी।

उधर जोधपुर के किले में कुछ असामान्य घटित होने वाला था, क्योंकि राव जोधा का झुकाव अपने ज्येष्ठ पुत्र बीका की ओर न होकर सातल की ओर था, जिससे पितृभक्त बीका ने राज्य के परित्याग का निश्चय कर लिया था और इसी कारण 30 सितम्बर 1465 को आश्विन सुदी 10 के दिन दशहरे की पूजा के बाद 27 वर्षीय कुंवर बीका ने नए राज्य की स्थापना के लक्ष्य को लेकर जोधपुर से प्रस्थान कर दिया।

इस संदर्भ में दो अलग-अलग कहानियां प्रचलन में हैं, मगर इतना तय है कि कुंवर बीका उस जांगल प्रदेश में केवल इसी विश्वास के दम पर जा रहा था कि वहां देवी करणी रहती है व उसका आशीर्वाद मिल जाने के बाद राज्य-स्थापना तो सहज कार्य ही है।

बीका के जोधपुर परित्याग के दृढ़ निश्चय को जानकर राव जोधा ने इस अभियान हेतु उसे आज्ञा प्रदान कर दी व 50 सवारों सहित सारूंडा का पट्टा प्रदान कर दिया।

कहा जाता है कि बीका ने 100 घोड़ों व 500 राजपूतों के साथ प्रस्थान किया था, जिनमें निम्नलिखित व्यक्ति उल्लेखनीय थे –

कांधल जी (बीका के चाचा), चौथमल कोठारी, जोगा (बीका का भाई), नन्दा (राव जोधा का भाई), नाथू (राव जोधा का भाई), नापा सांखला, नारसिंह बच्छावत, बच्छावत मेहता, बेला पडि़हार, मंडला, मांडल (राव जोधा का भाई), रूपा (राव जोधा का भाई), लाखण, लाला मेहता (लखणसी वैद्य), वरसिंह, विक्रमसी प्रोहित, वीदा, साल्लू राठी आदि।

दयालदास की ख्यात के अनुसार बीका के साथ 300 राजपूत आए थे।

जोधपुर से चलकर बीका ने अपना पहला डेरा मंडोर में किया, फिर देशनोक आया व 88 वर्षीया करणीजी के दर्शन किए व आशीर्वाद मांगा, तो करणी जी ने कहा कि –

‘तेरा प्रताप जोधा से सवाया होगा और बहुत से भूपति तेरे चाकर होंगे! फिलहाल तुम चांडासर गांव में जाकर में ठहरो!’

यह वह समय था, जब जोधपुर राज्य की सीमा देशनोक तक लगती थी।

माता करणी की आज्ञा से बीका, वर्तमान बीकानेर शहर से 12 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित चांडासर गांव में निवास करने लग गया, उस समय यहीं से भाटियों की अमलदारी शुरु होती थी।

इस समयकाल में बीकानेर के रूण क्षेत्र का शासक रायपाल का पुत्र महिपाल सांखला हुआ करता था।

करणी जी जब 82 सालों की हुई तो 15 अप्रेल 1469 को कार्तिक सुदी पूर्णिमा के दिन लाहौर क्षेत्र में रावी नदी के किनारे शेखपुरा जिले में स्थित राय भोई की तलवंडी में खत्री कुल के कल्यानराय पटवारी के यहां गुरु नानक का जन्म हुआ तथा अगले ही वर्ष माघ सुदी 10 को बीका के पुत्र राव लूणकरण का जन्म होता है।

देशनोक से चांडासर आदि स्थानों पर अधिकार जमाता हुआ बीका कोडमदेसर जाकर रहा व 1472 में स्वयं को राजा घोषित कर दिया।

कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्यम् के अनुसार –

‘बीका ने कठिनता से वश में आने वाले सब पुराने भोमियों को वहां से बलात्कारपूर्वक निकालकर बलवान विक्रम ने उसी देश से सवारों आदि की सेना तैयार की। ‘

फिर इसके बाद बीका ने जांगलू के 84 गांवों को अपने अधीन कर राज्य विस्तार करना शुरु कर दिया।

यह वह साल था, जब महमूद बेगड़ा ने जूनागढ रियासत पर अधिकार कर उसे मुस्तफाबाद नाम दिया तथा शेरशाह सूरी का जन्म हुआ ही था।

सन् 1478 में चम्पारण में लक्ष्मण भट्ट के पुत्र के रूप में वल्लभ संप्रदाय के संस्थापक वल्लभाचार्य का जन्म होता है, तो करणी जी अवस्था 91 साल हो चुकी थी, मगर वे पूर्ण परिश्रम के साथ गौसेवा में ही रत थीं।

सन् 1480 में 93 वर्षीया देवी करणी ने राव बीका को कोडमदेसर में भैरव मूर्ति की स्थापना का आदेश दिया व कहा कि –

‘यह मूर्ति तुम्हारे राज्य रूपी पौधे के लिए बीज का काम करेगी!’

और सचमुच ऐसा ही हुआ था, क्योंकि राव बीका के धैर्य व संकल्प से प्रसन्न होकर देवी करणी ने उससे ऐसा करने को कहा था, जिसके परिणाम के बारे में उन्हें जरा भी शंका नहीं थी।

सन् 1482 में संत जसनाथ जी का जन्म होता है।

इसी वर्ष पूगल के राव शेखा को मुलतान की फौज ने कैद कर लिया था, तब यह सुअवसर देखकर करणी माता की प्रेरणा से नापा सांखला ने पूगल के कामदार गोगली को मिलाकर शेखा की बेटी रंगकुंवरी से बीका का विवाह तय करवा दिया।

उधर राव शेखा के परिवारजनों की गुहार पर देवी करणी ने उसे मुलतान से रिहा करवा दिया, तो इधर उसके आंगन में उसकी जानकारी के बिना उसकी पुत्री के विवाह की तैयारियां हो रही थीं।

लग्न आने पर राठौड़ों की बरात पूगल गई, किन्तु ठीक उस समय, जब दुल्हे व दुल्हिन की भांवरें पड़ रही थी, राव शेखा का वापिस अपने घर आगमन हुआ।

वह उस विवाह को देखकर आगबबूला हो उठा था, परन्तु करणी जी के समझाने से मामला शान्त हो गया।

देवी करणी की प्रेरणा से हुए इस विवाह से राठौड़ व भाटी एक सूत्र मे बंध गए थे।

करणी जी ने विवाह के उस अवसर पर राठौड़ों व भाटियों को मित्रता की शपथ दिलाई थी।

मगर फिर भी राठौड़ों व भाटियों में संघर्ष नहीं रुक पाया, तब दोनों पक्षों ने इस सीमा-विवाद के समाधान हेतु करणी जी से निवेदन किया। तब उन्होंने बताया कि –

मैं जिस स्थान से अपने परमधाम को प्रस्थान करूंगी, वही तुम्हारी सीमा मानी जाएगी। ‘

सन् 1483 में सावन सुदी 6 के दिन ठोंका नामक स्थान पर राव बीका की जाटों पर उल्लेखनीय जीत होती है।

यह वही साल था, जब फरगना में बाबर का जन्म होता है, जांभोजी के 92 वर्षीय पिता लोहट जी की मृत्यु होती है व बीकानेर के भोजास गांव में मेहाजी गोदारा का जन्म होता है, जो आगे जाकर राजस्थानी में रामायण की रचना करते हैं।

12 अप्रेल1484 को रायमल के सबसे छोटे पुत्र सांगा का जन्म होता है और उसके अगले वर्ष यानी सन 1485 को राव बीका ने उस स्थान पर डेरे किए, जहां वर्तमान बीकानेर शहर बसा हुआ है।

राती घाटी के इस स्थान पर नागौर, अजमेर व मुलतान के प्राचीन मार्ग आकर मिलते थे।

इस स्थान को किले के लिए उपयुक्त जानकर 98 वर्षीया करणी माता ने इस वर्ष गढ़ की नींव का पत्थर रखा था।

इसी साल की कार्तिक बदी 8 को जांभोजी द्वारा विश्नोई संप्रदाय की स्थापना होती है।

द्रुत्त गति से निर्माण के कारण वह किला बन चुका था, तब 3 अप्रेल 1488 को वैशाख शुक्ला 2 को शनिवार के दिन 101 वर्षीया करणी जी के द्वारा यह उस नवनिर्मित गढ़ की प्रतिष्ठा की गई व बीकानेर नामक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की गई।

इस प्रकार जोधपुर व बीकानेर राज्यों की स्थापना न केवल करणी जी के आशीर्वाद से हुई थीं, बल्कि उनके हाथों से हुई थीं।

उधर जोधपुर में 6 अप्रेल 1489 को राव जोधा की मृत्यु हो जाती है।

यह वही वर्ष था, जब दिल्ली में बहलोल मोदी की मृत्यु होती है तथा बीकानेर में कार्तिक बदी 2 के दिन राव जैतसी का जन्म होता है।

सन् 1498 में देवी करणी 111 वर्षीया हो चुकी थी, मगर शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ थीं।

इसी वर्ष 20 मई को अपने गुजराती पथ-प्रदर्शक अब्दुल मजीद की सहायता से पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा यूरोप से भारत का सामुद्रिक मार्ग खोजकर भारत के मलाबार तट पर स्थित कालीकट बन्दरगाह पहुंचा।

यह वही वर्ष था, जब बाबर फरगना पर पुन: अधिकार करता है।

इधर राजस्थान में सन् 1501 में मेवात स्थित रिवाड़ी, राजगढ़ से तीन मील दूर माचेड़ी गांव के साधारण अग्रवंशी बनिया परिवार में पूरणदास के पुत्र के रूप में उस हेमू का जन्म होता है, जो कुछ समय के लिए रेवाड़ी की गलियों में नमक बेचता है, मगर आगे जाकर अपनी योग्यता व पराक्रम के दम पर विक्रमादित्य का विरुद धारण कर दिल्ली के तख्त पर बैठता है।

सन् 1504 को आसोज सुदी 3 के दिन 66 वर्षीय राव बीका की मृत्यु होती है व नरौ जी के कुछ माह के शासन के बाद फाल्गुन बदी 4 के दिन राव लूणकरण का राज्याभिषेक होता है।

यह वही साल था, जब सिकन्दर लोदी आगरा की स्थापना करता है व बाबर काबुल पर अधिकार करता है।

सन् 1506 में बाड़मेर के भादरेस गांव में आशानन्द बारठ का जन्म तथा ग्वाालियर से 40 किमी दूर बेहट गांव में तानसेन का जन्म होता है। इसी साल सिकन्दर लोदी आगरा को अपनी राजधानी बनाता है।

सन् 1511 को राव बीका के तीसरे चाचा ऊधा रिणमलोत के पुत्र पंचायण की मृत्यु होती है, जिसने पांचू गांव बसाया था।

इसी वर्ष 5 दिसम्बर 1511 को राव मालदेव का जन्म होता है।

सन् 1513 में माघ बदी 3 के दिन राव लूणकरण की बरात चित्तौड़ के लिए रवाना हुई तो राव ने 126 वर्षीया करणी जी के दर्शन कर उनसे आशीर्वाद मांगा था। इस विवाह की देनगी या बखेर में बीस हाथी व सौ घोड़े चारणों को दिए गए थे। इस दान को पाने वालों में से एक सम्मानित चारण का नाम लाला था, जिसका कई जगह उल्लेख मिलता है।

सन् 1514 को बाबर की पत्नी गुलरुख बेगचिक के पुत्र कामरान का जन्म होता है और इसी वर्ष बाबर चगानसराय पर अधिकार करता है।

नवम्बर 1517 को आगरा के किले में सुलतान सिकन्दर की मृत्यु के बाद इब्राहिम लोदी का राज्याभिषेक होता है।

इस समय दिल्ली का राज्य बहुत ही संकुचित था। उसमें दिल्ली, आगरा, दोआब व जौनपुर के कुछ प्रदेश ही शामिल थे।

21 मार्च 1526 को सावन बदी 4 के दिन नारनौल के नबाब शेख अबीमीरा के साथ धौसा नामक स्थान पर हुए युद्ध में राव लूणकरण अपने ही आदमियों के विश्वासघात से मारा गया, जिसके सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि उसने करणी जी कहा नहीं माना था व मना करने के बावजूद युद्ध के लिए प्रस्थान किया था।

उसकी मृत्यु के पांच दिन बाद 26 मार्च को सावन बदी 9 को 37 वर्षीय जैतसी का राज्याभिषेक हुआ।

21 अप्रेल 1526 पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी मारा गया। इसी वर्ष ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया को 28 वर्षीय तुलसीदास का विवाह परमसुन्दरी कन्या रत्नावली से होता है और अगले ही वर्ष यानी 17 मार्च 1527 को चैत्र सुदी 14 के दिन शनिवार को खानवा का युद्ध होता है व 30 जनवरी 1528 को बसवा में राणा सांगा की मृत्यु होती है।

इस समय देवी करणी 141 की उम्र में भी सांसारिक कल्याण में लगी हुई थीं।

समय पटल पर घटनाएं तेजी से घटित होती जा रही थीं। 26 दिसम्बर 1530 को सोमवार के दिन बाबर की मृत्यु हो गई व इसके तीन दिनों बाद 29 दिसम्बर को आगरा के किले में हुमायूं का राज्याभिषेक हुआ व दो साल बाद ही 9 मई 1532 को राव गांगा को उसके पुत्र मालदेव ने झरोखे से गिराकर मार डाला तथा 21 मई को उसी पितृहंता का राज्याभिषेक हुआ तथा 8 मार्च 1535 को चित्तौड़ का दूसरा साका हुआ।

इसी वर्ष दुरसा आढ़ा का जन्म हुआ व बीठू सूजा ने छंद राव जैतसी रा की रचना की।

सन् 1536 में मार्गशीर्ष बदी 9 के दिन समराथल धोरे पर 85 वर्षीय जांभोजी की मृत्यु हो जाती है। यह वही वर्ष था, जब चित्तौड़ के किले में बनवीर विक्रमादित्य की हत्या करता है।

सन् 1537 में चैत्र बदी 2 के दिन 150 वर्षीया देवी करणी ने अपने हाथों से बिना किसी तगारी के देशनोक मन्दिर के गुम्भारे का निर्माण किया व जाल वृक्ष के उन लकड़ों को छत पर तान दिया, जो आज भी ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो अभी-अभी रखे गए हों।

दयालदास अपनी ख्यात में लिखता है कि गुम्भारे के इन प्रस्तरों को देवी करणी अपने पीहर से बैलगाड़ी पर डालकर लाई थी।

इस एक घटना से ही हम उनके जीवन-चरित्र का मूल्यांकन कर सकते हैं कि जिसके समक्ष बड़े-बड़े राजा-महाराजा सिर झुकाकर खड़े रहते थे, वह वयोवृद्धा छोटे से छोटे काम को सांसारिक जतन व सरलता के साथ संपादित करती थीं।

इसी गुम्भारे के कपाट बन्द कर वे अपनी आराध्या आवड़ जी महाराज की उपासना किया करती थीं।

अपने विश्वासपात्र सेवक दशरथ मेघवाल द्वारा गायों की रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग कर देने पर उन्होंने अपने मन्दिर में उसका स्मारक बनवाकर पूजा का विधान स्थापित करवाया था, जिससे उनकी महान सोच का पता चलता है।

13 जनवरी 1538 को जोधपुर के राजा मालदेव के पुत्र मोटा राजा उदयसिंह का जन्म खैरवा की स्वरूपदेवी के गर्भ से होता है। इसी वर्ष बाड़मेर के भादरेस परगने में ईसरदास बारठ का जन्म होता है।

हकीम खां सूर भी इसी वर्ष जन्म लेता है।

151 वर्षीया करणी जी ने अब देहत्याग का निश्चय कर लिया था, क्योंकि इस दीर्घ-युग में उन्होंने वह सब सम्पादित कर दिया था, जिसके लिए उन्होंने जन्म लिया था।

उन्होंने अपने परिवारजनों व प्रमुख व्यक्तियों को बुलवाया व बताया कि वे अपनी जैसलमेर यात्रा के दौरान देहत्याग करने वाली हैं।

यह सुनकर सभी स्तब्ध रह गए थे। कुछ तो भावातिरेक के कारण रोने भी लग गए थे, तब उन्होंने सबको दिलासा दी व रथ पर चढ़कर अन्तिम यात्रा के लिए चल पड़ी।

इस यात्रा में उनका ज्येष्ठ पुत्र पुण्यराज व सारंग विश्नोई ही उनके साथ जा पाया था।

जैसलमेर को जा रहे उस रथ ने जल्दी ही जांगल प्रदेश पार कर ठरड़े व माड को भी पार कर लिया।

जब जैसलमेर सात कोस दूर रह गया था, तब पीठ के फोड़े के रोग से पीडि़त रावल जैतसिंह पालकी में लेटकर अपने परिवार व प्रजाजनों के साथ करणी जी के स्वागत को आया।

श्रद्धावनत रावल ने कातर भाव से अपनी पगड़ी करणी माता के चरणों में रखकर उनसे आयाीर्वाद मांगा, तो उन्होंने स्नेहवश उसकी पीठ पर हाथ रख दिया।

कहा जाता है कि रावल की रोग-ग्रसित पीठ पर जैसे ही करणी माता ने अपना हाथ रखा, वह असाध्य गांठ उसी समय गायब हो गई थी।

फिर तो महारावल के पुत्रवत अनुग्रह को वह देवी अस्वीकार नहीं कर पाई थी।

जयजयकारों के मध्य जैसलमेर के स्वर्ण-दुर्ग में रावल के साथ करणी माता ने भी प्रवेश किया था।

रावल के आग्रह पर जैसलमेर के दुर्ग में करणी माता 15 दिनों तक रही। इसी समयावधि में 80 वर्षीय अंधे सुथार अणदा खाती ने उनकी मूर्ति बनाई, जिसे निकट भविष्य में देशनोक के गुम्भारे में प्रतिस्थापित किया जाना था।

जैसलमेर से विदा होकर माता करणी ने तेमड़ाराय व भादरियाराय की यात्राएं की, फिर बेंगटी पहुंची व हड़बू जी सांखला से मिली व बीकानेर राज्य की ओर चल पड़ी।

ईस्वी सन् 1538 यानी विक्रम संवत की बात है।

151 वर्षीया करणी देवी अपने आराध्या तेमड़ाराय की यात्रा से वापिस आ रही थी, कि सूर्य ऊगने से पहले के धुंधलके में गडिय़ाला व गिराजसर गांवों के मध्य स्थित धनेरी व खारड़ी तलाई के बीच का स्थान आते ही उन्होंने अपने सेवक सारंग विश्नोई को गाड़ी रोकने को कहा और रथ से उतरकर उसे आदेश दिया कि –

‘मेरे ध्यानमग्न होते ही तुम्हें मेरे शरीर पर इस झारी से पानी छिड़कना है। ‘

यह कहकर देवी करणी पूर्वाभिमुख होकर एक पाटे पर ध्यानमग्न हो गई।

सारंग विश्नोई ने देखा कि उस झारी में केवल एक-दो बूंद पानी ही था, फिर भी उसने आदेश की पालना करते हुए उन कुछ बूंदों को ही उनके शरीर पर गिरा दिया।

जैसे ही पानी की पहली बूंद उनके शरीर से स्पर्श हुई, उनकी दिव्य काया एक विशाल ज्योति-पुंज के रूप में परिवर्तित होकर आकाश में विलीन हो गई।

यह अलौकिक दृश्य देखकर सारंग विश्नोई अचेत हो गया था।

यह चैत्र सुदी 9 यानी रामनवमी के दिन की बात है।

ठीक इसी दिन बाड़मेर के भादरेस गांव में ईसरदास बारहठ का जन्म होता है।

इसे हम मात्र संयोग नहीं कह सकते। यह निश्चित रूप से इस अलौकिक शक्ति की लीला थी, जिसने जाते-जाते अपना कुछ अंश धरती पर छोड़ दिया था, ताकि हरि के रस की सुहास सर्वत्र व्याप्त हो सके।

इस घटना के पांच दिनों बाद चैत्र शुक्ला 14 को उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में एक जन्मान्ध खाती द्वारा बनाई गई मूर्ति को देशनोक के गुम्भारे में श्रद्धासहित स्थापित कर दिया गया, जिसकी आराधना आज समस्त भारत के लोग श्रद्धा सहित करते हैं।

इनका प्रथम सेवक सिरोही का एक देवड़ा राजपूत था, जो आबू पर हुए दुश्मनों के हमले से जान बचाने हेतु इनकी शरण में आ गया तथा दुश्मनों के घेरे से सुरक्षित निकल जाने के बाद देशनोक आकर इनका नक्कारची बन गया।

कहा जाता है कि इसके वंशज देसाड़ नाम से जाने गए और मंदिर के चढ़ावे में कुछ हिस्सा आज भी पाते हैं।

न चाहते हुए भी अपने शब्दों को यहीं विराम देता हूं।

सुरेश सोनी (सोनी सिंथेलियन)

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