आदरणीय सभी स्वजातिय धाटवासी सज्जनों।
दो दिन पहले मैंने सिंधी भाषा मे “पारकर जी प्रीत” नामक शीर्ष से मेरी जन्मभूमि को लोरी दी थी, सिंधी एवं कच्छी भाषा के धाट पारकर वासी भारत में विस्थापित प्रेमियों ने उसको पढ़ा, अवलोकन किया और बधाई संदेश भी भेजे उन सभी सज्जनों को हृदय से साधूवाद।
मेरे मनमें मैंने निश्चय किया था कि पारकर एवं धाट की पुरानी प्रीत एवं रीत को सरल शब्दों मे आप तक पहुंचाऊंगा। मैंनें मैट्रिक तक पढाई डी.एल.बी. हाय स्कूल छाछरो से की थी, यह 1958-59 की बात है, अयूब की मार्शल ला वाला जमाना था, जो लोग बुजुर्ग हैं वे उस वक्त के हाल को जानते होंगे, व ऐसे बुजुर्ग जिन्होंने हमारी पुरानी सभ्यता को देखा वे धाट पारकर प्रेम को कभी भुला नहीं पाएंगे। साफ सुथरी धरती, आबोहवा माफिक, अति प्रेम व स्नेह, चौबीस गाँवों के आपसी मधुर संबंध, रीतोरिवाज सादे, ना कोई सगाई संबंध बिगड़े, नाहि कोई मनमुटाव पैदा हुआ। विरले कोई एकाध उदाहरण हुआ होगा। वस्तुतः शतप्रतिशत सादा जीवन था। आज सादगी, सादा जीवन, उच्च विचार एवं आपसी भाईचारा लुप्त होता जा रहा है। वैर, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, कुरीतियां, कप्ट, छल, आपसी बिगड़ते संबंध और आगे बढ़ने की होड ने तो हर समाज को धराशायी कर दिया है। अतः हमारी पुरानी सभ्यता क्या थी, उसको पुनः हमारे धाट पारकर युवाओं के समक्ष अवलोनार्थ प्रेषित किया है। मैं धाट पारकर सभ्यता से आत्मा से जुड़ा हुआ एक चारण प्राणी ह़ूं। हाँ! सम्बंध सगाई जहां जचा वहां किये व आगे भी इसी उद्देश्य को सामने रख कर ही करना है ताकि अच्छा सेण सुख दुख में काम आ सके और सुशिक्षित तथा उदारतावादी, एवं खरे खोटे की परख करने वाला हो। इसका यह कतई मतलब नहीं के धाट पारकर सभ्यता से बिल्कुल अलग थलग हो गया हूं… मैं धाट पारकर से मेरे अंतह्करण से जुड़ा हुआ हूं, एक किताब जो “मेरा सफरनामा” “1971 से 1978 “(भारतीय नागरिकता तक का समय) को पूरण होने पर प्रकाशित करवाऊंगा। उक्त वाक्य बीच में केवल इस लिए लाया हूं कि आज की हमारी सोच और जो हमारी पुरानी सोच थी उसमें काफी अंतर आ गया है यह आप, मैं और हम सभी डाँवाडोल स्थिति से बखूबी वाकिफ हैं व परिणाम भोग रहे हैं।
हम, एक सत्यवादी, निडर, क्रांतिकारी, तपस्वी तथा काव्यकल्ला के धन्नी चारण “उचारणा” नाम देवकोटि के अयाचक देव थे। हमने हमारे इन सदगुणों की, मैया भवानी से इनायत की हुई विशेषताओं की, मैया सरस्वती से वरदान मे मिली दिव्यशक्ति की और किसी के सामने हाथ ना पसारने की, इन संजीवनी रुपी रत्नों की कैसी दुर्दशा की है व व्यर्थ खोया है, सोचें कैसे हमारे हाथो से यह सारी अद्भुत कल्लाएं निकल ग्ई… हम एक साधारण मानव की तरह केवल भूख प्यास मिटा अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आईये हम सब मिलकर इस नवरात्रि से मैया से पुनः दिव्यकल्ला प्राप्त करने की करबद्ध वंदना करें, पुकार करें एवं प्रण लेवें कि हे! माँ भगवती दया कर चारण समूह को पुनः एक्ता डोरी में बांध हमें आशीर्वाद दे।
धाट री प्रीत अर रीत
दोहा
1. धाट धरा, शील धरा, खूबियां हंदि खाण।
आदर, अंजस, अपणायत, नराँ भेद निर्वाण।।
2. धाट धरा, धरा सुरंगी, इकरँगी इण भान्त।
मींठप, मांन, द्रपण दिल, नराँ धाट नितांत।।
3. धाट धरा, गेरी धरा, धर शूरां धुरी।
जलवायु मन माफक, साची स्वर्गपुरी।।
4. जल उंडा, धरती धोरां, धीणां, पुष्कल धांन।
थलवट धाट, थाट घणा, मिनखां ऊंचो मान।।
5. ऊंठ, गायाँ, छाली, बकर, उतम् खेती ओप।
कण कोठा, चारा पशु, सुखी सगला लोग ।।
6. खड़ झाझा, हर खेत, मेह् पाणी उत् मोकला।
धाटाणे हर जेथ, बाजे बिलोणा व्हेलिया।।
टेर:– म्हे धाटीड़ा चारण चोखा, चोखी म्हांरी रीतड़ी।
चाव चारण रो चितड़े राखां, राखां सगलां प्रीतड़ी…
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हाँरी संबंध सगायां, सगली चोखी दाग नि लागो धाट ने।
मांन घणो, सहु बेटी माँ, हेत हतो हर जात में।
कोड घणा घर सासु करती, दुखी नि होती दीकरी।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
मींठा खेत रा, खेजड़ खोखा, चोखा चाव सुं चावता।
काचर, बोर, मतीरा, साँगर, बोरा भर भर लावता।
खाटे साग रो, नि त्रोटो तिलभर, खूब राँधां म्हे खीचड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
तप सागोड़ो, कर तापता, सियाले घण शांन सां।
हेत हथायां, हुलर हुलामणा, करता हर मेहमान सां।
चाय, पाणी अर रोटियाँ ब्होलि, राखां… राजावाँ रि रीतड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
खाटाँ ढ़ाल, ओतारे खिज़मत, हुंति आयोड़ां रि आद सुं।
म्हारे संम्प ठेठ, सगला भायाँ, म्हे दूर हता विवाद सुं।
पलकां नैण बिछाय, पामणा, जीमाड़ां सह जुग्तड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
भर्तकल्ला, कसीदा, भिन्न भिन्न, धाट लुगायाँ धाप करे।
देश विदेशां, हाट बजारां, धाक धाट री, अनाप सरे।
जग चावी लुंम्ब नार काँचली, ओपे गौरी अंगड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
महे खेत ऊंठां सां, खेड़ खेतियाँ, हलिया जोतां हेत सुं।
शीश निमावां, उण धरती ने, प्रीत घणी उण रेत सुं।
गवार, बाजरो, मूंग मोठड़ी, खरार पाके खेतड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
म्हे जाग बेगा, तले ने जावां, जोतां पाडा, सैंग जणां।
वारी फिरते पाय छांग ने, लेवां काँधे भर मणां। (मटको) जोड़ जाँतरा, इणि भांत रा, प्यस बुझावां, जीभड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
माड़हु धाट रा, ठीमर ठावा, नार धाट रि, शीलवंती।
शीश बेड़लो शोभे सुंदर, लटके लूंम्बाँ लाजवंती।
घेर घुमाव घाघरियो सोहे, नाकां पलके नथड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
घुंघट लाज, निर्मल नैणी, चाल हंसिनी नार चतुर।
पाक कल्ला, प्रवीण त्रियागुण,धाट धरा, नि पार हुनर।
थाल पुरिसण जुग्ति जाणे, मान, मर्यादा मींठड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
गुण,बखाण, जाण धाट रा, किना विध वध कोड सुं।
परख धरा, धोरां रि धरती, लिखी लाखिणी लोड सुं।
“आहत” अंजस दिलड़े ब्होलो, जिकां रि हे जीतड़ी।।
ए! धाटड़ले री रीतड़ी…
म्हे धाटीड़ा चारण चोखा….
नोट:- धाट में रिवाज था शब्दों प्रेमपूर्वक छोटा बोला जाता था.
जैसे.. रीत= रीतड़ी, प्रीत= प्रीतड़ी आदि अतः उसी लहज़े में दोहराया है।।
दोहो
(म्हारी) प्रीत, पाराणे, धाट सुं, जड़यो नेहां जीव।
पेढियाँ हंदा, प्रेम रि, नव हथ, निंची नींव।।
(आशूदान मेहड़ू “आहत”) जयपुर राज.