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नेतृत्व का चयन प्रबंधन,
की प्रामाणिक धूरी है।
कैसे कह दें छात्रसंघ, निर्वाचन गैर जरूरी है।

कोई भी हो तंत्र तंत्र का,
अपना इक अनुशासन है
अनुशासन के लिए तंत्र में
अलग-अलग कुछ आसन है।
आसन पर आसीन कौन हो,
इसकी एक व्यवस्था है।
जहाँ व्यवस्था विकृत-बाधित,
हाल वहीं के खस्ता हैं।
साँप छोड़ बाँबी को पीटे,
समझो अक्ल अधूरी है।
कैसे कह दें छात्रसंघ, निर्वाचन ग़ैर-जरूरी है।

लोकतंत्र का यह प्रशिक्षण,
शिक्षण का हिस्सा सुन लो।
गुण-दोषों का कर अवलोकन,
जो उत्तम उसको चुन लो।
है आजादी खुद लड़ने की,
अपना हुनर दिखाओ आओ।
क्या-क्या सपने हैं संस्था के,
पूरे कैसे करें बताओ।
ग़र खुद से कुछ नहीं बने तो,
सबसे भली सबूरी है।
कैसे कह दें छात्रसंघ निर्वाचन गैर-जरूरी है।

मत का मूल्य, चयन नेता का,
निर्वाचन का पूर्ण पसारा।
संविधान, आचार-संहिता,
विधि-सम्मत कानूनी-धारा।
नामांकन दाखिल करने से,
मतगणना तक सारे काम।
कैसे मत देना दिलवाना,
एक-एक कर सीख तमाम।
इस पर भी ग़र ठीक न समझो,
समझ-समझ की दूरी है।
कैसे कह दें छात्रसंघ, निर्वाचन गैर-जरूरी है।

जो कुछ सीख यहां से निकले,
आगे वो अपनाएंगे।
ना सीखे तो कदम-कदम पर,
फिर वे ठोकर खाएंगे।
“कोउ नृप होउ हमें का हानी”,
कह कर सब पछताएंगे।
लोकतंत्र की जर्जरता के,
दोषी माने जाएंगे।
सजग रहें स्वीकारें सीखें,
ये अपनी मजबूरी है।
कैसे कह दें छात्रसंघ, निर्वाचन ग़ैर-जरूरी है।

कोई भी हो काम काम में,
कमियां तो मिल जाती है।
काम नहीं बदले जाते हैं,
कमी सुधारी जाती है।
वैसे ही छोटे से मोटे,
निर्वाचन ये सारे हैं।
ये निर्वाचन लोकतंत्र के,
सुभट सजग रखवारे हैं।
बिन चिंतन जो करे बुराई,
मनमानी मगरूरी है।
कैसे कह दें छात्रसंघ निर्वाचन ग़ैर-जरूरी है।

~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”

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