।।छंद – त्रोटक।।
घनघोर घटा, चंहु ओर चढी, चितचोर बहार समीर चले।
महि मोर महीन झिंगोर करे, हरठोर वृक्षान की डार हले।
जद जोर पपिहे की लोर लगी, मन होय विभोर हियो प्रघले।
बन ओर किता खग ढोर नचै, सुनि शोर के मोहन जी बहलै।
हिलते लतिका, दंमके दतिका, दिल दादुर बोलन से दरपे।
धर धार धरे, घन घोर घुरे, दर कैहर खींझ रह्यो तडपै।
कलराय रही पिक कानन मे, सफरी सरसाय रही सरपे।
सुनि शोर शिखि, दुखि चन्द्रमुखी, लखि मोहन मस्त भयो घरपै।
तरणी रही तेज चले सरीता, धरणी हरीता हरीता दरसे।
झरणी छटा शिखर पे झलकै, करणी किरतार रही करसे।
तरणी निज ढांक दियो तनको, चरणी अटकी भटकी डरसै।
परणी कर याद रही पिव ने, बरणी नही जाय इसी बरसे।
सरीता चली चाल, बयाल सिंगाल, सोइ जगजीव सुखी दरसे।
जल जात, जलच्चर सोइ सुखी, तनु सीप समुंदर ना तरसै।
अंचला धर आंचल रंग हरीत, सुगीत गावे करसा हरसे।
खड बोवन धान किसान प्रफुलित, मोहन खेत चले घरसे।।
~मोहन सिह रतनू, चौपासणी