ना रात वो संगीन थी, ना रात वो रंगीन थी।
हुआ शहीद प्रताप था, ना रात वो गमगीन थी ॥
शुक्ल पक्ष की रातें थी, वहां वीर तुम्हारी बातें थी।
हार गया अंग्रेज वहां पर, जीत तुम्हांरे खाते थी।।
सपनें संजो के आज़ादी के, निकला केशरी की चौक से।
ठोक दिया बम जा के, चांदनी की चौक से ॥
वीर था गंभीर था वो भारती का चीर था।
आज़ाद करनें भारती को वीर वो अधीर था।
सुरवीर था वो धीर था गंगा सा पाक नीर था।
विजय का आभीर था रणखेत में शमशीर था॥
मान था सम्मान था वो केशरी की जान था।
कर्तव्य पथ के मामले में हिन्द की पहचान था।
आन था वो बान था वो आदमी महांन था।
शान का निशान था खुद वीर वो ज़हान था॥
हृष्ट था वो पुष्ट था शिष्ट वो सपुत था।
दुष्ट से वो रूष्ट था विशिष्ट का सबूत था।
दुष्ट पे ब्लास्ट करनें शेर सा बलिष्ट था।
अंज़ाम देनें काम को चाचा से वो निर्दिष्ट था॥
-जितेन्द्र चारण ‘शक्ति उपासक’