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अमर शहीद प्रताप सिंह बारहठ पर रचित एक कविता….

अमर वाक्य-
रोवै तो रोवै भला तोडूं कोनी  रीत, जननी सूं ज्यादा मनैं जन्म भौम सूं प्रीत

चल रहा था जख्म और दर्द का ये सिलसिला
छातीयों में था उफनता एक भयंकर जलजला।
कब तलक मांओं का क्रंदन नाद सुनते वीर भी
देख कर लाशें हजारों हो गये अधीर भी
जब हदें टूटी तो बच्चे भी खिलौने छोड़कर
आ गये मैदान ए जंग में तटबंधों को तोड़कर
रण भूमि में जब लगे वो हिंद की जय बोलने
तो धरा अंबर रवी तीनों लगे थे डोलने

एक चारण वीर केहर केशरी सिंह नाम था
दिल में बसती देशभक्ति आंखों में संग्राम था
उस कबीले चारणों की क्या अनूठी रीत थी
देश की मिट्टी से हर बांकुरे को प्रीत थी
था बड़ा ही भाग उनका, भाग ना सैदा हुआ
सिंहणी की कोख से फिर सिंह ही पैदा हुआ
जो डरा ना बम व गोले और फिरंगी तोप से
ना ही वो विचलित हुआ था पीर के प्रकोप से
मौत भी करने से डरती सामना उस ताप का
कांपता था हर फिरंगी नाम सुन प्रताप का

चेहरे पे उसके हजारों भानुओं सा तेज था
रूप ऎसा सामने खुद रूप ही निस्तेज था
गज सरीखी थी भुजाएं वज्र के सम वक्ष था
बैरीयों का प्राणहंता रण कला में दक्ष था
सिंह सी दहाड़ चीते के समान चाल थी
धीरता सौ सागरों से भी बड़ी विशाल थी
यूं लगा जब बैरीयों के प्राण ही वो खा गया
मुगलों को धुलि चटाने राणा फिर से आ गया

जब नाहर सिंह ने गोरों को खुश करने के लिये उनकी हवेली निलाम करवादी
वो सामंती भभकियों से भी कभी भी ना डरा
मां से बढकर उसने माने ये वतन, वसुंधरा
तोड़ ना पायी उसे वो घर की भी निलामियां
और ताकत दे गयी उन टट्टुओं की खामियां
जिसकी जिम्मेदारी थी वो गोरे पांवों में पड़ा
कैसे कह दूँ नाहर सिंह मैं तेरे कर्मों को बड़ा
अरे सच ही बोला है इन शमशीर जैसे छंदों ने
भारत मां का आंचल गिरवी रख डाला जयचंदो ने

प्रताप तुम्ही बम फोडोगे गुरूदेव ने ऎसा कहा
खुश होकर वो रणबंका पल भर तो झूमता ही रहा
फिर बनी योजना बारूदी इतिहास गवाही देता है
वो जबर हठीला एक बालक हाथों में बम ले लेता है
लगता है ऎसे बनवारी चले प्राण कंश के हरने को
जैसे श्री राम चले वन से वध लंकपति का करने को
थम गई समय की घड़ियां भी खुद काल देखने को आया
जब भारत माता ने सुत को गोदी में भरकर दुलराया
छाती पर चढकर बैरी की वो बम बारूदी फोड़ गया
और इतिहासों के पन्नों में वो स्वर्णिम पन्ना जोड गया

जब प्रताप से अंग्रेज अफसरों ने कहा कि तुम्हारी माँ रो रही होगी तो प्रताप ने क्या सुंदर जवाब दिया :-
मां की खुशियों की खातिर मैं निज फर्ज भुलाऊं भी कैसे
एक मां के आंसु पोंछ लाख मांओ को रुलाऊं भी कैसे
चारण मांए क्या होती है लो आज तुम्हें बतलाता हूँ
विश्वास है मां ना रोयेगी लो राज तुम्हें बतलाता हूँ
चारण मांए वीर कथाएं पलने पूत सुनाती है
प्राणों से भी बढ़कर वो माटी का मौल बताती हैं
वो हिरणी ज्यों नाजों से ना अपने सुत को सेती है
वो बच्चों को खेल खिलौने तलवारें दे देती है
अरे चारण मांए शहादोत्सव पर आंसू नहीं बहाती है
अरे वो तो यम से भी लडकर के बेटे छीन ले आती है

जब प्रताप सिंह जी को पिता केशरी सिंह जी के सामने गोरे जेल में लेकर आये
फिर चले एक चाल गोरै जलजले को थामने
ले आये प्रताप को सिंह केसरी के सामने
कह उठे केहर बिना ही बोल सुन प्रताप के
हो नहीं सकते हो बेटे क्रांतिकारी बाप के
नींव इतनी दृढ़ तो कंगूरा ढह सकता नहीं
सैकड़ों इन सागरों से थार बह सकता नहीं
सूर्य ने पश्चिम से उगकर चाल कब बदली भला
वज्र सी छाती बता किस पीर से पिघली भला
क्रांति का जो राज खुला सुत माफ ना कर पाऊंगा
गोलियों से भून दूं या सर कलम कर जाऊंगा

आंख से आंसू गिरा प्रताप ने ली सिसकियाँ
विष सरीखी लग रही थी वो पिता की झिडकियां
थामकर आंसू वो बालक जब लगा था बोलने
देखकर आक्रोश सागर जल लगा था खौलने
रक्त हूँ बाबा तुम्हारा रक्त पर अभिमान है
रक्त के हर एक कतरे में ये हिंदुस्तान है
आरजू ना मंद होगी एक भयंकर प्यास है
राज तब तक ना खुलेगा जब तलक ये सांस है
जीते जी मुझसे बाबा पाप हो सकता नहीं
पीड़ा से जो टूट जाये प्रताप हो सकता नहीं

केहर के उस लाडले की अल्हड़ जवानी मस्त थी
हर फिरंगी चाल उसके सामने ही पस्त थी
अत्याचारों को वो चारण मुस्कुरा कर सह गया
और फिरंगी अफसर केवल तिलमिला कर रह गया
पीड़ा सहते सहते आखिर दिन सुहाना आ गया
स्वर्ग का वो देव फिर से देव पद को पा गया
ये देश प्रलय तक ना भूले प्रताप के बलिदान को
जो प्राण देकर कर गये आजाद हिंदुस्तान को

–प्रह्लादसिंह कविया प्रांजल भवानीपुरा

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