हे गाँव, तुझे मैं छोड़ चला, लाचार भरे इस भादों में।
था एक दिवस जब तेरे इस आँगन में फूली अमराई !
था एक दिवस जब मेरे भी मन में झूमी थी तरुणाई !
पीपल की फुनगी पर बोली, पंचम स्वर में कोयल काली !
मादक मधु-ऋतु के स्वागत में, कोसों तक फैली हरियाली !
पावस की मतवाली संध्या, आती अम्बर से उतर-उतर !
उन खेतों की पगडंडी पर, वह बैलों की घंटी का स्वर !
फिर तीजों का त्यौहार सुखद, सखियों के मादक गीत मधुर !
झूलों के मस्त झकोरों पर, जाते उर के अरमान बिखर !
तुम इन्द्रपुरी से सुन्दर थे मेरे मरुधर के सुखद ग्राम !
तेरे रेतीले धोरों पर उल्लास बिछाती सुबह शाम !
किस्मत की मिटी लकीरों से, रे, आज कहाँ वे दिन बीते!
जगती के विष की तुलना में, ये जीवन के मधुघट रीते !
अरमान सुलगते शोलों से, मानव मन के अवसादों में !
हे गाँव, तुझे मैं छोड़ चला, लाचार भरे इस भादों में।
क्या तुझे सुनाऊँ आज सखे ! ये पीड़ा के पहचाने हैं !
ये दग्ध-ह्रदय के छले हैं, ये दर्द भरे अफ़साने हैं !
यह ज़ुल्म ज़मीदारों का है, यह धनिकों की मनमानी है !
बेकस किसान के जीवन की, यह जलती हुई कहानी है !
क्या कभी सुना भी है तुमने ! मानव मानव को खाता है !
पीकर लोहू चटकार जीभ, फिर हँसकर दाँत दिखाता है !
ये ज़मींदार कहलाते हैं, मूँछों पर ताव लगाते हैं !
सौ-सौ को साथ डकार जाएँ, पर कभी डकार ना खाते हैं !
पर इनको कौन कहे ज़ालिम, ये शोषक सत्ताधारी हैं !
इनकी उस ईश्वर के स्वरूप राजा से रिश्तेदारी है !
इनकी वह लाल हवेली है, अम्बर में ऊँचा शीश किए !
इन कंगालों की कुटिया का जो आँखों में उपहास लिए !
वह रात मनाती रंगरलियाँ, मधु-प्यालों के आह्लादों में !
हे गाँव, तुझे मैं छोड़ चला, लाचार भरे इस भादों में।
कर्मठ किसान के खेतों पर, आतंक ध्वजा फहराती है !
इनके वे टैक्स-लगान देख कर मानवता थर्राती है !
“भूंगे” का भूत लगा सिर पर, आँखों में क्रूर विनाश लिए !
बेदख़ली के बादल छाए, बस महाप्रलय का श्वास लिए !
बेगार प्रथा की बाँहों में जीवन की साध सिसकती है !
नंगे-भूखों की आँहों में आँखों की आग बरसती है !
ये जान सकेंगे कभी नहीं, इस जगती का वैभव क्या है !
कोई इनसे जाकर पूछे, दो पैरों का मानव क्या है ?
मानव मिट्टी का रोड़ा है, बस, जब चाहा तब तोड़ दिया !
मानव टम-टम का घोड़ा है, बस, जब चाहा तब जोड़ दिया !
वह नाबदान का कीड़ा है, किलबिल करता है सुबह-शाम !
वह पूँछ हिलाता कुत्ता है, अपने मालिक का चिर-ग़ुलाम !
वह अपनी हस्ती बेच चुका, अपने मालिक के हाथों में !
हे गाँव, तुझे मैं छोड़ चला, लाचार भरे इस भादों में।
पर कौन यहाँ सुनने वाला, वे तो मस्ती में गाते हैं !
कंगाल खड़े हैं यहाँ इधर, पर वे मधु-रात मनाते हैं !
वे उस दूकान पर जाते हैं, जिस पर यौवन बिकता रहता !
पैसे-पैसे के बदले में जो मिट्टी में मिलता रहता !
उनके वे काग़ज़ के टुकड़े, उस ज्वाला में जल जाते हैं !
बरसों से मिले हुए मोती, उस पानी में घुल जाते हैं !
उद्दाम वासना का यौवन, उस धारा में बह जाता है !
नारी का नंगा तन झकोर, वह काँप-काँप रह जाता है !
फिर भी वे अपनी सत्ता का, कुछ सार जमाने वाले हैं !
कंगलों के झूठे टुकड़ों पर, अधिकार जमाने वाले हैं !
यह मानव की दुनिया कठोर, यह मानव का संसार विषम !
दुर्बल के निर्बल कन्धों पर, दुस्साह जीवन का भार विषम !
वह राग बेबसी का उठता, महफ़िल के मधुर निनादों में !
हे गाँव, तुझे मैं छोड़ चला, लाचार भरे इस भादों में।
~कवि मनुज देपावत