🌹गोड़ावण गरिमा🌹
दुहा
गोडावण गरिमा लिखूं ,दो उगती वरदाय
जिण पंछी रे जीवसूं, लम्पट गया ललचाय
छंद नाराच
वदे महीन मृदूबाक, काग ज्युं न कूक हे
बैसाख जेठ मास बीच ,लूर मोर सा लहे
सणंक सो करे सुवाज ,भादवे लुभावणी
जहो गुडोण जागरुक मारवाड तू मणी…..१
सजे सरुप सानदार , धात्रि चूंच ना धंसे
सुशील सील सम्य जीव, वीच मारु विहंसे
लसे सुडील लाजदार ,पंख फूटरापणी
जहो गुडोण जागरुक मारवाड तू मणी…..२
चले विहंग मस्त चाल ,रिझे सिंधु राग में
उठे सुदुर अन्तरीख ,गिद्ध ज्यू गिणाग में
धरेह तालरां में धाम ,सीलता सरावणी
जहो गुडोण जागरुक , मारवाड तू मणी….३
बसे नहीं तुं टाळ ब्रछ ,भाखरां नहीं भमे
टिबाह देख टाळका ,सुरम्य रीत सूं रमे
भखेह आखु भाळ के, करे निहाल क्रसणी
जहो गुडोण जागरुक मारवाड तू मणी….४
ओपे सरीर आपरो, दिलेर धीर देह सूं
फबे सुनार फूटरी ,नाचे नजीक नेह सूं
रमे विहंग प्रेम रास ,चन्द्र रात चानणी
जहो गुडोण जागरुक मारवाड तू मणी….५
टिवे किताक ताक-ताक रंक राण राजवी
लुळे किता विदेसी लोग, बादसाह बाजवी
प्रवीण धीर पंखेरू, मैं कूड़ नी कथूं कणी।
जहो गुडोण जागरुक मारवाड तू मणी…..६
छप्पय
सिकन्दर ससेन ,कतल अनेका कीना
गजनी गोरी गजब , लूट सुमंदिर लीना
निरदय नादिरसाह ,केक आक्रमण कारी
करी विदेसी क्रूर ,भारत में हिंसा भारी
हुओ सबल आजाद हिन्द ,आजादी अपणाय ने
आखेट करण सारु अबे ,”बदर “गयो बिलखाय ने
《 मोहनसिंघ जी रतनु // मोरारदान सुरताणीया 》
(सौजन्य- चारणवाणी अंक-२ अप्रेल-जुन ,१९८२)
नोट- इस रचना को आदरणीय मोहन सिंह जी रतनू ने बीस वर्ष की उम्र लगभग रही होगी तब कहा था। उस वक्त इरान का शाह भारत भ्रमण पर आया था। उस समय समरेंदु कुंदु भारत के विदेश मंत्री थे। इरान का शाह अपने साथ में प्रशिक्षित बाज भी लेकर आया था ताकि वह राजस्थान में पाए जाने वाले गोड़ावण का शिकार कर सके। कवि का ह्रदय विचलित हुआ और उसने मन ही मन इश्वर से प्रार्थना करी ताकि नीरीह पक्षी की जान बच जाएँ और इरान का शाह उसका शिकार न कर पाए। बाद में इस घटना का मिड़िया में आया तो उसे गोड़ावण का शिकार किए बिना ही भारत से पलायन करना पड़ा।