देववंशी/देवजाती- चारण
>कलम व तलवार की धनी चारण जाति ने अपनी साहित्हिक प्रतिभा व संगठनात्मक शक्तियों का संयोजन स्वतंत्रता समर में भाग लेकर किया। चारण जाति की उत्पति दैवी से हुई है, वह खुद भारत वर्ष मे शासक(जागीरदार) जाती थी, चारण जाती बडे बडे शासको की सहयोगी बनकर,अधिक रस लेकर उनकी सहायता करती थी।
>राजपूत राज्यो में चारणों का स्थान बड़ा उच्च था, चारण ही इतिहासकार,
कुशलयोद्धा, राजकवि व मंत्री हुआ करते थे ।
कुशलयोद्धा, राजकवि व मंत्री हुआ करते थे ।
>भागवत में नारद को ब्रह्मा ने जो सृष्टिक्रम बतलाया उसमें चारणों का उल्लेख मिलता है, यहा नारद, ब्रह्मा, शिव, राक्षस, सूतगण, देवता, असुर, चारण, खग, मृग, सर्प, गंधर्व, उरग, पशु, पित्तर, सिद्ध, विद्धाधर, वृक्षादि की गणना की गई है
इससे स्पष्ट होता है कि चारण मानवेतर सृष्टि माने गये है, यह जाति किसी समय स्वर्ग में रहती थी, और देव स्वर्ग में भी इनका समावेश था।
इससे स्पष्ट होता है कि चारण मानवेतर सृष्टि माने गये है, यह जाति किसी समय स्वर्ग में रहती थी, और देव स्वर्ग में भी इनका समावेश था।
> चारण के देवजाती होने के सेंकडो प्रमाण है जो नीम्न है:-
: देवसर्ग के विभाग और स्वरुप:
हीम वर्ष के सम्पूर्ण स्वर्ग मे देव जाती के लोग रहा करते थे जो आठ सर्गो मे विभक्त थे।ईस सर्गो मे किसी मे एक,किसी में दो और किसी में तिन जाति समूह है। ईस प्रकार से आठ सर्गो की कुल 14 देवजातीयाँ वहाँ निवास करती थी। देव जाति के ईन सर्गो के बारे में श्रीमदभागवत पुराण के तृतीय स्कंद के दसवें अध्याय मे लिखा है-
हीम वर्ष के सम्पूर्ण स्वर्ग मे देव जाती के लोग रहा करते थे जो आठ सर्गो मे विभक्त थे।ईस सर्गो मे किसी मे एक,किसी में दो और किसी में तिन जाति समूह है। ईस प्रकार से आठ सर्गो की कुल 14 देवजातीयाँ वहाँ निवास करती थी। देव जाति के ईन सर्गो के बारे में श्रीमदभागवत पुराण के तृतीय स्कंद के दसवें अध्याय मे लिखा है-
देवसर्गश्चाष्टविधो विबुधा पितरोसुराः।
गन्धर्वाप्सरस सिद्ध यक्ष रक्षांसि चारणाः।।२७।।
भूत,प्रेता,पिशाचाश्य विध्याध्रा किन्नरादयाः।
दशैत विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः।।२८।।
गन्धर्वाप्सरस सिद्ध यक्ष रक्षांसि चारणाः।।२७।।
भूत,प्रेता,पिशाचाश्य विध्याध्रा किन्नरादयाः।
दशैत विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः।।२८।।
देवताओ के ८ जाती सर्ग है-
१. बीबुध, २.पितर, ३.असुर, ५.गंधर्व, अप्सरा (ईन दोनो का एक सर्ग), ५.यक्ष,राक्षस (ईनदोनो का एक सर्ग), ६.भूत,प्रेत,पीशाच (ईन तीनो का एक सर्ग), ७.सिद्ध,चारण, विध्याधर (ईन तीनो का एक सर्ग), ८.किन्नर।
वरुण अथवा ब्रह्मा ने जीन दो अथवा तीन को साथ मे स्थान दिया है, उनका एक सर्ग अर्थात् समूह माना है।
१. बीबुध, २.पितर, ३.असुर, ५.गंधर्व, अप्सरा (ईन दोनो का एक सर्ग), ५.यक्ष,राक्षस (ईनदोनो का एक सर्ग), ६.भूत,प्रेत,पीशाच (ईन तीनो का एक सर्ग), ७.सिद्ध,चारण, विध्याधर (ईन तीनो का एक सर्ग), ८.किन्नर।
वरुण अथवा ब्रह्मा ने जीन दो अथवा तीन को साथ मे स्थान दिया है, उनका एक सर्ग अर्थात् समूह माना है।
>चारण की उत्तपति और वीकास के बारे मे वेद और पुराणो की गुंज ईसके अति प्राचीन होने की साक्षी देते है।फलत: यह बात स्वतः प्रमाणीत है कि ईस जाती का प्रादुभार्व एक एसे समय मे हो चुका था जब वर्ण व्यवस्था का नामोनिशान तक नही था।
यह जाती दक्ष पुत्री व शिव की सन्तान है। सति व शिव के ये सरंक्षण मो वेदो की रुचाएँ रचने के कारण चारण रुषी कहलाते थे। सति के 52 पुत्र(गण)जो दक्ष यग्य मे सति की सुरक्षा मे साथ थे। सति के यग्य कुण्ड मे कुदकर स्वयं को जला देने पर ईन गणो (चारणो) ने दक्ष का वध कर अप्रतिम शौर्य का परीचय दीया। जीस पर उपस्थित देव दानव आदी ने ईनको विर पद से विभूषित किया तब से विर कहलाये ।
यह जाती दक्ष पुत्री व शिव की सन्तान है। सति व शिव के ये सरंक्षण मो वेदो की रुचाएँ रचने के कारण चारण रुषी कहलाते थे। सति के 52 पुत्र(गण)जो दक्ष यग्य मे सति की सुरक्षा मे साथ थे। सति के यग्य कुण्ड मे कुदकर स्वयं को जला देने पर ईन गणो (चारणो) ने दक्ष का वध कर अप्रतिम शौर्य का परीचय दीया। जीस पर उपस्थित देव दानव आदी ने ईनको विर पद से विभूषित किया तब से विर कहलाये ।
> वनपर्व 441 श्रीमद् भागवत में चारण जाति का आठ प्रकार के देवसर्ग में परिगणित किया गया है, ‘चारयन्ति कीर्तिमति चारण’ जो स्वयं धर्म के पथ पर आरूढ़ होकर दूसरों को धर्मोंत्थान की ओर प्रेरित करे वो चारण।
>चारण शब्द योद्धा,सिद्ध, कवि इत्यादि पदों के योग में प्रयुक्त होता है जिससे इनकी सिद्धि सम्पन्नता तथा युद्ध कुशलता व काव्य प्रतिभा साक्षित होती है, देवसर्ग में परिगणित यह चारण जाति देवताओ के साथ विचरण करती थी।
> महाभारत के भीष्मपर्व 20वें अध्याय का 16वॉ श्लोक चारणों की महत्ता को प्रदर्शित करता है, महाभारत में उल्लेख है – कौरव, पांडवों की दोनों तरफ की सेना और अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार देखकर श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन, तू देवी की स्तूति कर, वह तुझे विजय देगी , उस समय अर्जुन ने स्तुति की –
तुष्टि: पुष्टि धृति दीप्ति, श्रद्धादित्यविदिनी ।
मूर्ति मति मतां संख्य, वीक्षसे सिद्ध चारणै:।।
तुष्टि: पुष्टि धृति दीप्ति, श्रद्धादित्यविदिनी ।
मूर्ति मति मतां संख्य, वीक्षसे सिद्ध चारणै:।।
> रामायण काल में इनका निवास लंका में वाल्मीकि ने बतलाया है। ये अपने विशिष्ट गुण, कर्म के कारण चतुवर्णात्मक भारतीय समाज में भिन्न निरूपित हुए हैं। देव यज्ञों में सम्मिलित होना इनका अनिवार्य अधिकार था।
>महाभारत काल में इस जाति ने यायावार नामक आश्राम धर्म की स्थापना कर एक यायावरीय उपनिषद की रचना भी की, इस जाति के लोंगों के गोत्र भी आष होने से इनका ऋषियों से संबंध सिद्ध होता है।
सुन्दरकाण्ड 42, 161 : सद् धर्म की साधना में योगदान चारणों के जीवन का लक्ष्य रहा है।
>बालकाण्ड सर्ग 45, श्लोक 33 “इमं आश्रम मृत्यसृज्य सिद्ध चारण सेविते हिमवत् शिखरे रम्ये तपस्तेये महायता:” हनुमान जब सीता का अन्वेषण कर रहे थे तो उन्हें सीता के धर्म परिग्रह का वृत चारणों से ज्ञात हुआ था (सुन्दरकाण्ड 44 सर्ग 29) ,चारणों ने ही सीता के कुशल वृत के मंगल संवाद से संतप्त हनुमान के संताप को नष्ट किया था।
>पंचम् वेद महाभारत में भी चारण जाति के प्रसंग उल्लेख हुए है (आदि पर्व 126/11 ) अर्जुन ने इन्द्र से अनुमति प्राप्त कर सिद्ध चारण से शासित लोक में जाकर पांच वर्षों तक शस्त्र विद्या का अभ्यास किया था।
> यजुर्वेद में चारण शब्द का प्रयोग ऋचा में हुआ है, यजुर्वेद अध्याय 6, मंत्र 2 –
“यथोमां वाच कल्याणी मानवदानि जनेभ्य:
राजन्याभ्यां शूद्राय चार्चाय च स्वत्व चारणयं”
इस ऋचा में चार वर्णों से पृथक उस चारण शब्द का उल्लेख यह बतलाता है कि इन चार वर्णों से भिन्न उद्गम वाली यह एक विशिष्ट जाति थी।
“यथोमां वाच कल्याणी मानवदानि जनेभ्य:
राजन्याभ्यां शूद्राय चार्चाय च स्वत्व चारणयं”
इस ऋचा में चार वर्णों से पृथक उस चारण शब्द का उल्लेख यह बतलाता है कि इन चार वर्णों से भिन्न उद्गम वाली यह एक विशिष्ट जाति थी।
> ईसके अतिरिक्त
पद्मपुराण, गणेशपुराण, आदीत्यपुराण,
विष्णुपुराण, शीवमहापुराण, स्कन्दपुराण,
मत्स्यपुराण, ब्रह्मपुराण, वायुपुराण,
वामनपुराण,
भविष्यपुराण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णुपुराण,
गर्गसंहिता, मनुस्मृति, अमरकोष,
हलायुधकोष, अष्टाध्यायी, नालन्दाविशाल
शब्दसागरकोष,भगवदगोमंडल,कालीदासकी रचनाओ,हर्ष चरीत्र,प्रसन्नराघव,राजतरंगिणी,अनर्ध राघव,पृथ्वीचन्द्र चरीत्र ईत्यादी जैसे प्राचीन महान ग्रंथो मे, और तो और बहोत से जैन ग्रन्थो मे भी चारणो के बारे में दिया गया उल्लेख ध्यान देने लायक है ।
पद्मपुराण, गणेशपुराण, आदीत्यपुराण,
विष्णुपुराण, शीवमहापुराण, स्कन्दपुराण,
मत्स्यपुराण, ब्रह्मपुराण, वायुपुराण,
वामनपुराण,
भविष्यपुराण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णुपुराण,
गर्गसंहिता, मनुस्मृति, अमरकोष,
हलायुधकोष, अष्टाध्यायी, नालन्दाविशाल
शब्दसागरकोष,भगवदगोमंडल,कालीदासकी रचनाओ,हर्ष चरीत्र,प्रसन्नराघव,राजतरंगिणी,अनर्ध राघव,पृथ्वीचन्द्र चरीत्र ईत्यादी जैसे प्राचीन महान ग्रंथो मे, और तो और बहोत से जैन ग्रन्थो मे भी चारणो के बारे में दिया गया उल्लेख ध्यान देने लायक है ।
चारणो का शस्त्र-शास्त्र,पर असाधारण अधीकार था,
अपीतु चारण क्षत्रीय वर्णस्थ माने जाते है।
अपीतु चारण क्षत्रीय वर्णस्थ माने जाते है।
जयपालसिंह (जीगर बऩ्ना) चारण ठि.थेरासणा