Thu. Nov 21st, 2024

गौरवर्ण, उर्ध्व ललाट, दीर्घ नेत्र, मुखाकृति फैली हुई, भव्य दाढ़ी सब मिलाकर ठाकुर जोरावर सिंह बारहठ का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था। इनका जन्म १२ सितम्बर १८८३ को इनके पैत्रक गाँव देवखेडा (शाहपुरा) में हुआ था। देशप्रेम, साहस और शौर्य उन्हें वंश परंपरा के रूप में प्राप्त हुआ था। जोधपुर में प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई बालमुकुन्द से (जिन्हें दिल्ली षड़यंत्र अभियोग में फांसी हुई थी) जो राजकुमारों के शिक्षक थे, उनका संपर्क हुआ। राजकीय सेवा का वैभव पूर्ण जीवन उन्हें क्रांति दल में सम्मिलित होने से नहीं रोक सका। निमाज़ (आरा) के महंत की राजनैतिक हत्याओं में वे सम्मिलित थे, परन्तु वे फरार हो गए। जब रासबिहारी बोस ने लार्ड हार्डिंग्ज़ पर बम फेंक कर “ब्रिटिश अजेय है” इस भावना को समाप्त करने की योजना तैयार की तो इसका जिम्मा जोरावर सिंह व प्रताप सिंह को सौंपा। दिनांक २३ दिसंबर १९१२ को जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद की शक्ति के प्रतीक वायसराय लार्ड हार्डिंग्ज़ का भव्य जुलूस दिल्ली के चांदनी चौक में पहुंचा तो जोरावर सिंह ने बुर्के से चुपके से हाथ निकाल कर बम फेंक कर वायसराय को रुधिर स्नान करा दिया। प्रताप सिंह भी उस समय उनके पास थे। इस घटना से अंग्रेजों की दुनिया के सभी गुलाम देशों में राजनैतिक भूकंप आ गया था। भारतवासी ब्रिटिश शासन को वरदान के रूप में स्वीकार करते हैं, इस झूठे प्रचार का भवन ढह गया। जोरावर सिंह, प्रताप सिंह को लेकर दिल्ली से निकल गए। उस दिन से जीवन के अंत तक वीरवर जोरावर सिंह राजस्थान और मालवा के वनाच्छादित पर्वतीय प्रदेशों में अमरदास वैरागी के नाम से फरार अवस्था में भटकते रहे। निरंतर २७ वर्षों तक वे राजस्थान व मध्यप्रदेश के जंगल-बीहड़ों में भूख प्यास, सर्दी, गर्मी, वर्षा सहते हुए आजादी की अलख जगाते रहे। इसी दौरान एक बार अंग्रेजों को उनकी भनक लगी तो उन्होंने सीतामऊ के तत्कालीन राजा रामसिंह को आदेश दिया कि वे जोरावर को गिरफ्तार कर उन्हें सुपुर्द कर दे। रामसिंह नहीं चाहते थे कि वे किसी चारण क्रांतिवीर को गिरफ्तार करे अतः उन्होंने गुप्तचर के माध्यम से उन्हें सीतामऊ से बाहर निकल जाने का समाचार कहलवाया इस पर जोरावर ने महाराजा को एक रहीम का भावपूर्ण दोहा भेजा
सर सूखे पंछी उड़े, और ही सर ठहराय।
मच्छ कच्छ बिन पच्छ के, कहो राम कित जाय।।
 
दोहा पढ रामसिंह की आंखों में आंसू आ गए अब स्वयं उन्होंने जोरावरसिंह बारहठ को कहलवाया कि आप मेरे राज्य में निर्भय रहे। इस प्रकार जंगलो में भटकते भटकते भारत मां का यह लाल आश्विन शुक्ल पंचमी दिनांक १७ अक्तूबर १९३९ को एकलगढ (मंदसौर) में नारू रोग से जूझते हुए फरारी अवस्था में ही इस नश्वर देह को त्याग परलोक गामी हुआ। वहीं उनकी स्मृति में बनी एक जीर्ण-शीर्ण छतरी हमारी कृतघ्नता और उनकी वीरता की गाथा गा रही है।

संस्मरण
आज भारत के क्रांतिदूत अमर सैनानी ठा. जोरावर सिंह के पैर मे असाध्य दर्द है। घुटना सूजन के कारण फूल गया है। यह समय है १९२० या २१ का। बून्दी के पास मोरटहुका के जंगल में घनी झाड़ीयों में छोटी सी खटोली जो किसान अपने खेत की रखवाली के लिये रखते हे उस पर आश्रय रहता था। न दवा है न कोई उपचार ठा. जोरावर सिंह जी को १९१४ में आरा केस मे फरार होना पड़ा था। उनके चार साथीयों को फांसी पर लटकाया जा चुका था। ब्रिटिश सरकार द्वारा उनको पकड़ने वाले पर १२५००/ का ईनाम था। वे जंगलो पर अज्ञात रहकर अपना जीवन मस्ती से बिता रहे थे। सहसा पैर मे डेहरू हो गया, वे दर्द से बैचेन कोटा अपने बड़े भ्राता ठा. केसरी सिंह जी के पास आए। उनका परिवार देश की आजादी की बलिवेदि पर सब कुछ लुटा चुका था। उस वक्त उनके कमरे मे ताला लगा कर रखा था। रात को खाना, दवा, मरहम-पट्टी व सुबह चार बजे वापस ताला, ताकि घर मे अन्य नोकर या अजनबी को भी उनके होने की खबर न पड़े। कुछ दिन बाद रातो रात बैलगाड़ी मे चारा भर कर मोरटहुका गांव के जंगल में पहुचाना पड़ा, जहां उनकी साली ब्याही गई थी। जब पूरा गांव सो जाता तब घर से खाना-पीना लेकर उनकी धर्मपत्नि आधी रात को पंहुचती, पैर की पट्टी बदल जाती व रात्रि समाप्त होने से पहले पुनः गांव मे आ जाती। कई बार भय के कारण किसी को शक न हो उनको वंहा अकेले ही रहना पड़ा। पैर मे पट्टी खोलने पर मवाद से कनस्तर भर जाता था। केसरी सिंह जी पर अंग्रेजो की पूरी नजर रहती थी। हर वक्त की रिपोर्ट रेजिडेन्ट कोटा व एजेन्ट गवर्नर आबू पहुचती थी, इस कारण वे भाई को देखने भी नहीं आ सकते थे। वहीं से जो हो सकती वो दवा का इंतजाम करते। उचित दवा व डॉक्टर के अभाव मे उनका एक पैर खिंच गया व हमेशा छोटा रह गया। इससे उन्हे जीवन भर लंगड़ा कर चलना पड़ा।
राजलक्ष्मी जी के अनुसार “एक दिन अचानक पुलिस बल कोटा हवेली मे तलाशी को आए, सावन का महिना था, में दाता की गोद में बैठी थी समझ नही सकी ये क्या हो रहा है। उन्होने एक कागज दिखाया जिस पर वे निडरता से बोले ‘आपको किसने कहा कि मेरा भाई यहां है? दाता स्वाभाविक रूप से उठे व कहा कि पूरे घर की तलाशी ले लो पूरा घर खुला पड़ा है। कोना कोना छान मारा मगर वे कहिं नहि मिले। जबकि थोड़ी देर पहले ही मे उनके पास खेल कर आई थी।
उनकी दादीसा ने कमरा खोला व रस्से के बल पीछे एक बड़ा इमली का पेड़ था उसके सहारे उनको उतार दिया। वे सीधे छोटे तलाब के किनारे जहां कोटड़ी के शमशान थे उनकी छतरियों मे छिप गये । इतनी भीषण वर्षा मे कहां जावें? तीन दिन भूखे प्यासे, उसी तरह वहां छिपे रहै। चौथे दिन मेरे पिताजी उनका खाना व रेलगाड़ी का किराया लेकर गये। इसके बाद वे ट्रेन मे मालवा लौट गये व दो साल बाद वापस आये”.

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *