संसार की किसी भी भाषा की समृद्धता उसके शब्दकोष और अधिकाधिक संख्या मे पर्यायवाची शब्दो का होना ही उसकी प्रामाणिकता का पुष्ट प्रमाण होता है। राजस्थानी भाषा का शब्दकोष संसार की सभी भाषाओं से बड़ा व समृद्धशाली बताया जाता है। राजस्थानी में ऐक ऐक शब्दो के अनेकत्तम पर्यायवाची शब्द पाये जाते है, उदाहरण स्वरूप कुछेक बानगी आप के अवलोकनार्थ सेवा में प्रस्तुत है।
।।छप्पय।।
।।ऊंट के पर्यायवाची।।
गिडंग ऊंट गघराव जमीकरवत जाखोड़ो।
फीणानांखतो फबत प्रचंड पांगऴ लोहतोड़ो।
अणियाऴा उमदा आखांरातंबर आछी।
पीडाढाऴ प्रचंड करह जोड़रा काछी।
उमदा ऊंट अति दरक द्रव हाथीमोला मोलघणां।
कव कवत ऐह पिंगल कहै बीस नांम ऊंटा तणां।।
जोधपुर से निकलने वाली माणक मासिक पत्रिका में ऊंट के 400 से अधिक पर्याय लिखे हुए है।।
।।घोड़ै के पर्यायवाची।।
वाजि वाह वाजाऴ पंख पंखाऴ विपखी।
अर्वा (कहि) अर्वत हयं गंघर्व बलख्खी।
त्रिपद सैंधव तेज ताज तेजी वानायुज।
कांबोंजो हंसाऴ जवण पुंछाऴ जटायुज।
हैंवर मनउपयंग मुणि रेवंत खैंग खुरताऴ रौ।
सावकर्ण चलकर्ण सहि पवणवेग पंथाऴ रौ।।
।।हाथी के पर्यायवाची।।
दंती कहि दंताऴ ऐकड़सण लंबोवर।
द्विरद गैवरो द्विप्प गंधमय जांण गल्लवर।
सूंडाडंड सूंडाऴ मत्त मातंग गजोवर।
नाग कुंजर भ्रंग करी वारणां करीवर।
दंतु दंतुल फेर दख चवि चोडोऴो चरण चति।
पिंगल प्रमाण कवि पेखियं गात्रशैल नागांण गति।।
इस प्रकार अतिसमृध्दिशाली अनेकानेक शब्दो का खजाना लिए हुये यह मायड़ भाषा राजस्थानी रसभीनी रंगरूड़ी भाषा है पर संविधान के विधान की विडंम्बना है कि इस भाषा को संवैधानिक मान्यता नहीं है। और राजस्थान व राजस्थानियों के साथ यह दोगलापन और अन्याय है।
।।तलवार के पर्यायवाची।।
रंगरूड़ी रसभीनी राजस्थानी भाषा बड़ी श्रृंगारिक भाषा है, और तलवार वीरों की प्रिय सखी संगिनी सहचरी रही है तलवार के राजस्थानी भाषा मे अनेकानेक सुन्दर नाम पाये जाते है तलवार के पर्यायवाची शब्दों की बानगी की छट्टा अवलोकनीय व संग्रहणीय है।
खांडो किरमर खाग, धड़च बांकऴ धराऴी।
सुधवट्टी समसेर, मालबन्धण मूंछाऴी।
कड़बांन्धी केवांण, विजढ वाणांस चमक्की।
तोल धूप तलवार, सगत आसुधर चक्की।
किरमाऴ सूर-झटका-करण, घण मरद बांधै घणां।
कव कवत्त ऐह पिंगल कहै, तीस नांम खांडे तणां।।
इसके अलावा भी अनेक नाम तलवार के पाये जाते है, राजस्थान के विद्वान कवि जनों ने इनको साहित्य की सरिता रस में सराबोर कर गुम्फित कर दिया और अपनी आने वाली पीढीयों को धरोहर व थाती रूप में प्रदान कर दिया है।
।।तीर के पर्यायवाची।।
राजस्थान में प्राचीन कहावतें लौकोक्तियां व आडी औखाणां आदि राजस्थानी भाषा के ही अंग है तथा इनके उपयोग से भाषा की अभिव्यक्ति में सरसता समृध्दता तथा रोचकता प्रस्फुटित होती है और प्रभाव भी परिलक्षित अधिक हो जाता है। ऐसी ही ऐक कहावत है कि लागै तो तीर नही लागै तो तुको ही सही।
प्राचीन काल में तीरों की लड़ाई ही सबसे श्रैष्ट व सुविधाजनक होती थी आर्यावृत में अनेकानेक वीरवर तीरंदाज हुयेहै व आज भी तीरंदाजी भारतीय खेलों में शामिल है अतः प्रस्तुत है तीर के पर्याय।
पखी कहि पंखाऴ, विसिख वांणाल सुबद्दं।
अजिहमग कहि अलख, खग्ग खुहम निखद्दं।
कक्रंबा करडंड कहो, मार गण म्रगणाऴा।
पत्री कहि विणपख्प, रोख इखां इखधाऴां।
खेड मेड खंगाऴ कहि, नाराचां निरबाण रौ।
नीरस्तां नाराट नखां, खुरसांणज खुरसांण रौ।।
इसी प्रकार तोपों का भालों का यौध्दाऔं का अनेकानेक शब्दों का राजस्थान में पर्यायवाची खजाना भरा हुआ पड़ा है।
।।भाले के पर्यायवाची।।
भाला भी लड़ाई के शस्त्रों मे प्रमुख आयुध है और घुड़सवारों के भी बहुत ही काम आता है। महाभारत के प्रमुख पात्र युधिष्ठर का प्रमुख हथियार भाला ही था। सिध्द अलूनाथजी के पाटवी पुत्र नरूजी भी भाला चलाने में सिध्दहस्त यौध्दा थे। त्यागी तपस्वी राष्ट्रवीर दुर्गादास राठौड़ भी भाला युध्द में सानी नही रखते थे। जोधपुर मेहरानगढ दुर्ग में उनकी घोड़ै पर सवार भाले से समशान की आग पर बाटियां सेकते हुये का ऐक चित्राम दीवार पर लगा हुआ है। एक कहावत भी है कि फलां आदमी तो भाले से ही बाटियां सेक कर खाता है।
भालो सेल त्रभाग, ऊलऴ वझेवऴ सावऴ।
कूंत अणी असि काज, अलऴ झाऴांमुख साबऴ।
खिंवण डहण अत खंभ, ग्रहण-बैरी उग्राहऴ।
सापिण देह छडाऴ, सांग गांजा चौ धारण।
वऴकती केऴ लसकर वऴे, करणपोत हसती-कणा।
सांम रै सुकर सोहै सदा, तीस नांम बरछी तणां।।
आज भी भारतीय खेलों में भाला फैंकने की प्रतियोगिता में जितनी अधिक लम्बाई उतना ही व्यक्ति की विजय सुनिश्चित है।
।।लाठी के पर्यायवाची।।
लाठी, लकुटी, डांग, सोटो, घेसऴो, लकड़ी, खोटण, मोगरी आदि अनेक नाम पर्याय से आत्म रक्षा का हथियार है लाठी और बुढापे का सहारा भी है इसके बारे में ऐक बहुत ही सुन्दर प्रसंग है कि………
उठ सखी मंदिर चलां, तो बिन चल्यो न जाय।
माता दवेती आसका, बो दिन पहुंच्यो आय।।
अर्थात- हे सखी लाठी तूं उठ और मेरा सहारा बन, भगवान के मंदिर में चलें, अब तेरे बिना मेरे से चला नहीं जाता है। मेरी माताजी मुझे बचपन में आशिष देती थी कि बूढो डोकरो हुवजे। अब माताजी की आशिष वाला ही समय आन पहुंचा है, सो अब तूं ही मेरी सखी है।
सिंघा सरपां गोउवां, अवसर बैरीड़ांह।
जऴथांभण सावऴवहण, छह गुण लाकड़ियांह।।
कवि ने लाठी के छःह गुण बताये है। अर्थातः 1. सिंह जैसे हिंसक पशुओं से अपनी रक्षा करना। 2. जहरीले सांपो से बचाव व सुरक्षा करना। 3. गायों को हांकते हुये व चराते वक्त साथ रखना। 4. दुश्मनों से मुकाबला होने का अवसर आ जाने पर। 5. अनजान पानी को पार करते समय पानी की गहराई की थाह लेने में। 6. बुढापे या असक्षमता में शरीर का संन्तुलन सही रखने के लिए।
उपरोक्त छःह गुण लकड़ी के पाये जाते है और आज के समय मे भी साथ मे रखने हेतु लाईसेंस की आवश्यकता नही होती है।
।।यौद्धा के पर्यायवाची।।
संसार भर की किसी भी सभ्यता अथवा देश में यौद्धाओं का महत्व सदैव से ही अत्यंन्त ऊच्च स्थान पर रहा है, और उनके दम पर ही ऐतिहासिक लड़ाईयों व युद्धों का परिणाम निकला है। जिस किसी राजा के पास स्वामीभक्त अड़ाभीड़ योद्धा रहे हैं, उस राजा का राज सुनिश्चित व स्थाई रहा है। समय के साथ यौद्धाओं के आयुध बदलते रहे है पर स्वभावगत युध्द करने की अभिलाषा परंम्परागत चलायमान रही है।
रंगरूड़ी रसभीनी मायड़ भाषा राजस्थानी मे यौद्धाओं के नानाविधि नाम पाये जाते है जिनमें से कुछ पर्यायवाची नाम प्रस्तुत है।
सिंह सूर सामंन्त, जोध भुजपाऴ अड़ीभिड़।
भिड़ै फौज गाहणां, वेढ भींचां जोधार गिड़।
अणी भमंर बधि समर, अछर वर हंसां अखां।
सबऴ-दऴा-गाहणां, सूरजमंडऴ-भिद सखां।
रूप फौज भूप आगऴ रहै, कवि पिंगऴ ऐ नाम कहि।
जोधार जिसा भिमेण ज्यों, महा अडिग कमधांण महि।।
इस भांति राजस्थानी में शासन की रीढ यौध्दाओं का यशोगान किया गया है, तथा चावा चारण कवि उमरदानजी लाऴस ने तो “जोधारां रो जस” नामक ऐक अच्छी स्वतंत्र रचना भी बणाई है।
।।धरती के पर्यायवाची।।
अनन्त ब्रह्माण्ड में प्राणियों का मूल निवास व उद्गम स्थान धरती को ही माना गया है। धरती को धारण करने की विभिन्न बातें व मान्यताऐं चलती आ रही हैं। धरती माता भी मानी जाती है। धरती दबाने के बाबत ही संसार की बड़ी व छोटी लड़ाईयां इस धरती के उपर ही हुई है। यथा-धरती के पर्यायवाची शब्द प्रस्तुत व प्रेषित है।
धरा धरत्री धार’र, धरणी ख्योणी धूतारी।
कु प्रथु पृथ्वी कांम, सर्वसह वसुमति सारी।
वसुधा उरबी वांम, खमां वसुधर ज्याःदख्य।
गोत्रा अवनीः गाई, रूपः मेदनी सुलख्य।
विपुला सागर अंबेरा, खुरखूं दीखै गाऴरां।
राजा पृथूची परठि रटि, वरियण आग वज्रागरां।।
बादशाह अकबर ने चारण जड्डाजी महड़ू को ऐक बार धरती के तुल्य उपमा देकर नवाजा था यथाः…………
धर जड्डा अम्बर जड्डा, अवर न जड्डा कोय।
जड्डा नाम अल्लाह का, जड्डा मेहड़ू जोय।।
~राजेन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा सीकर)