भगवती सैणी जी-परिचय, लोककल्याण व पर्यावरण संरक्षार्थ दिये प्रेरक परचे—
चारण समाज में देवीय अवतार की परंपरा का एक ऐतिहासिक तथ्य है। “चौरासी चारणी” तो महाशक्ति का अवतार मानी जाती है। इसके अलावा समय समय पर अनेक देवियों का अवतरण भी चारण समाज में हुआ, जो सभी “नवलाख लोवङियाल” के सामुहिक नाम से पूजित है। ऐसी उदारमना देवियों मे आवङजी, सैणीजी, करणीजी, बिरवङीजी, देवलजी, मोगल माँ, नागबाई माँ सहित प्रभृति नाम गिनाऐ जा सकते है| मध्यकालीन भारत मे राजस्थान व गुजरात में कई देवियों ने अवतार लिया । सुदृढ राजवंशों की स्थापना करने मे वरदहस्त व आशीर्वाद प्रदान किया। लोक कल्याण, पर्यावरण संतुलन हेतु पशु पालन, वृक्षारोपण आदि महत्वपूर्ण कार्य कर आदर्श स्थापित करने के कारण आम लोक मे पूज्य देवियां मानी गई।
इसी परंपरा में भगवती सैणीजी का अवतरण गर्विले गुजरात के जूनागढ़ जिले की भैंसाण तहसील के गोरवियाला नामक गांव में वि.सं. १३४६ चैत्र सुदी अष्टमी को हुआ। आपके पिताजी का नाम वैदोजी तथा माताजी का नाम हंसाबाई था। ये नेचङा शाखा के धनाढ्य व प्रतिष्ठित चारण थे। सैणीजी के परिचय बाबत यह दोहा सुविज्ञात है-
डैरवियाली डूंगरी, गोरवियालो गांव।
देव वैदे री डीकरी, सैणल मां रो नाम।।
वैदोजी ईशभक्ति व आद्याशक्ति हिंगलाज की आराधना मे लीन रहते थे। परंतु संतान सुख से वंचित रहते मन मे व्यथित रहते थे। धर्मपत्नी के आग्रह पर संतान की चाहना मे आदिशक्ति हिंगलाज माता के परम धाम की यात्रा कर मनोइच्छा पूर्ण करने की आर्त प्रार्थना की।
कहे हांसी कलपो क्यों, कंथ वैदा कवराय।
ध्यान तो हिंगलाज धरो, जद आवे जगराय।।
भक्त वैदोजी की प्रार्थना पर हिंगलाज माता ने प्रकट होकर आशीर्वाद दिया कि वे स्वयं उनके घर जन्म लेगी, परंतु मात्र चौदह वर्ष तक ही इस धरती पर ब्रह्मचारिणी स्वरूप मे रहेंगी। इसके बाद पुनः अपने मूल स्वरूप में लौट आयेगी।
सिद्ध वैदा घर संचरो, अम्ब पूरेला आस।
म्हे आसूं नवमास मे, पांथू बुझावण प्यास।।
इस प्रकार। भगवती सैणीजी स्वयं आद्याशक्ति हिंगलाज माता का ही अवतार थी। सैणीजी की बाल लीलाओं से वैदोजी के परिवार में खुशियां हिलोरें ले रही थी। सैणीजी जब चौदह वर्ष की हुई, तब श्रावण मास की तृतीया के दिन सखियों संग गांव के तालाब पर शिव पूजन के उद्देश्य से पधारी। तालाब की पाल पर उन्हें वीणा की मधुर संगीत की स्वरलहरी सुनाई दी। सैणीजी जब संगीतकार के पास पहुंची तो देखा कि ऐक युवक अपनी मस्ती मे वीणा पर राग रागिनियों का संधान कर रहा है। आसपास पशु पक्षियों का झुंड इकट्ठा होकर संगीत का मंत्रमुग्ध होकर आनंद ले रहा है। संगीतकार से परिचय देने को कहा व उससे कहा कि वह उसकी संगीत विधा की पारंगतता से खुश होकर उसे कुछ ऐसा देना चाहती है, जिससे उसके यश की वृद्धि हो अतः कुछ मांगो। युवक ने अपना परिचय वींझाणद भांचलिया शाखा के चारण के रुप मे दिया। वचनबद्ध सैणीजी से उसने कहा कि वे यदि उसे कुछ देना ही चाहती है तो “उसके घर पर आकर घूंघट निकाले”। अर्थात उससे विवाह करे। सैणीजी ने उसे समझाया कि वह उससे कुछ ऐसा मांगे जिससे उसकी यश वृद्धि हो। सैणीजी के रुपलावण्य मे मुग्ध वींझाणद ने केवल ऐक ही मांग रखी कि वे उसके घर पर घूंघट निकाले। सैणीजी ने वींझाणद से कहा “रे मूढमति मैं तो तुझे कुछ और देना चाहती थी, परंतु तुम सांसारिक मोह मे आबद्ध हो। मै वचनबद्ध हूं अतः मेरी भी शर्त है कि यदि तुम सवामण अणबिंधे मोती जो शीप स्रावित हो व 100 नवचंदरी भैसे नियत समय (कहीं पन्द्रह दिन तो कहीं छह मास का उल्लेख है) तक लेकर आ जाओगे तो ही मैं वचनबद्ध हूं। अन्यथा मैं वचनमुक्त मानी जाऊंगी। वींझाणद तो उसी समय ध्येय की प्राप्ति हेतु निकल गया। लाख कोशिश के बाद भी वींझाणद वांछित मात्रा मे मोती व भैंसो का संग्रह नहीं कर सका। सैणीजी को तो अपने भूलोकवास की अवधि का भान था। नियत चौदह वर्ष की समाप्ति से पूर्व लोककल्याण की लीलाएं करनी थी। उन्होंने अपने माता पिता से आज्ञा मांगी कि वे अपना नश्वर शरीर त्यागने के लिए हिमालय की यात्रा पर जायेगी| अतः उनके लिए बैली (बैल गाड़ी/रथ) तथा खाङेती (सारथी) की व्यवस्था की जाये। जैसाकि मूल जी मोतीसर लिखते है-
आज्ञा मात पिता ले चाले, परसण हेमाले।
रथ बैल्या पितु सोंप्यो, गवरी तन गाले।।
सैणीजी की हिमालय यात्रा पथ के मुख्य पङाव (परचे परवाङे)—-
अपने गांव गोरवियाला से प्रस्थान कर ओझत नदी के किनारे धारी गुंदाली नामक जगह पर विश्राम किया। यहां वट वृक्ष के तने पर अपने हाथ का निशान अंकित किया। यह वैदा वट कहलाता है। वर्तमान में यहां मातेश्वरी सैणीजी का सुंदर मंदिर बना हुआ है|
अगला पङाव- “कुंवरगांव” रहा। जहां भक्त धीराजी/धोलजीभाई भरवाङ को वृद्धावस्था में पुत्रोत्पत्ति का आशीर्वाद दिया। इनके वंशज सैणिया गमार कहलाते है। यहाँ सैणीजी ने दातुन से जाल का पौधा लगाया जो आज भी विद्यमान है। यहां सैणीजी का भव्य मंदिर बना हुआ है।
यहां से अगला विश्राम- “मांगरोल” रहा। भक्त घेसियाभाई पटेल को पानी के मीठा होने व अपने हाथ से गणजो (जामुन) का पौधरोपण कर पर्यावरण संरक्षण का आशीर्वाद दिया। यहां सैणीजी का भव्य मंदिर बना हुआ है। शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को भारी संख्या में श्रद्धालुओं का पदार्पण होता है।
सैणीजी की यात्रा का अगला पड़ाव- राजस्थान के जालोर जिले का धूलिया नामक गांव रहा। यहां रात्रि में बैलो द्वारा “मेहरोजी” नामक किसान के खेत मे उगी चंवलो की फसल मे नुकसान करने पर किसान ने अपना रोष जताया। भगवती सैणीजी ने लीला रची व किसान से कहा कि उसके खेत मे तो इमली के पेड़ है, जिन्हें बैल कैसे नुकसान पहुंचा सकते है। मेहरोजी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब अपने खेत मे इमलिया ही इमलिया पाई। उसने माताजी से क्षमा याचना की व वह खेत माताजी को समर्पित कर पर्यावरण संवर्द्धन हेतु “ओरण” घोषित किया। मूलजी मोतीसर के शब्दों मे
“चंवला पलट कर चंण्डी, आम्बल उगवाई।” इसी ओरण मे बङे बङे आम्बलियो के पेड़ व सैणीजी का सुंदर मंदिर स्थित है। यह जन जन की अगाध श्रद्धा का केन्द्र है।
अगला विश्राम- स्थल जैसलमेर जिले का फलसूंड नामक गांव में रहा। पानी की न्यूनता के चलते भी जोधा जाति के राठौड श्रृद्धालुओं ने माताजी बैलों को पानी पिलाया। व जलसंकट निवारण की प्रार्थना की। सैणीजी ने भक्तों की प्रार्थना पर पानी मीठा होने का आशीर्वाद दिया। यहां आज भी पानी मीठा है, जबकि पास के गांवों में पानी भारी है। फलसूंड मे सुंदर मंदिर बना हुआ है। सर्व समाज अपनी भक्ति व श्रृद्धा अर्प्रित करते हैं।
सैणीजी हिमालय यात्रा का अगला प्रमुख पङाव जोधपुर जिले का “जुडिया” नामक गांव रहा। यहां गांव के समीप स्थित राजगढ़/सोहनथली नामक धोरे पर आपने विश्राम किया। गांव के जागीरदार लूणोजी लालस के पास अपने सारथी खेमङजी रावल को भिजवा कर बैलों के लिये चारे पानी की व्यवस्था हेतु संदेश भेजा। गांव में जल स्त्रोत ऐकमात्र कुआं था व उसमें भी पानी बहुत भारी था। लूणोजी लालस ने अपनी गायो का दूध पानी में मिलाकर बैलों की तृष्णा मिटाई। सैणीजी की सेवा में प्रस्तुत होकर चरण पखालकर चरणामृत लिया व भोजन ग्रहण करने का निवेदन किया। कुएं मे जल की न्यूनता व अत्यंत भारी होने की व्यथा प्रकट कर निदान करने की विनती की। मां सैणीजी ने भक्त लूणोजी से कहा कि भोजन तो सजनी नामक वणिक कन्या ला रही है, वही करुंगी।भक्त लूणोजी लालस की लोककल्याण कारी मांग पर भगवती सैणीजी ने अपने हाथ से नीम का पौधरोपण किया व आशीर्वाद दिया कि मेरे प्रस्थान करने के बाद अगली सुबह इस कुएं से अथाह मीठा पानी प्रस्फुटित होगा व पानी के साथ ऐक मूरत (विग्रह)भी स्वतः प्रकट होगी, उसे मेरी मूर्ति मानकर कुएं से चार पाउंडा/सात हाथ की दूरी पर स्थापित कर देना व मेरी पूजा करना। मैं सदैव यहां वास करुंगी।
सजनी नामक नाहटा कन्या गुड व लापसी का भोजन लाई व मां को प्रसाद करवाया। सैणीजी के आशीर्वाद से कुएं मे भरपूर मीठा पानी प्रस्फुटित हुआ व मूर्ति भी जल के साथ स्वत् प्रकट हुई।उस मूरत को सैणी माताजी के आदेशानुसार कुएं के पास ही सात हाथ की दूरी पर स्थापित किया गया। कविवर आवङदानजी जुडिया सैणी महमाय की कीरत पच्चीसी मे लिखते है-
उबखंता जल ऊपनी, मूरत सैणल मात।
च्यार पैंड गिण चंडका, सुर राजे हत्थ सात।
मूरत निकली मात री, ऊबखतां जल आय।
चरण च्यार सर सूं चिंतव, थान उठे हिज थाय।।
सेठ कन्या सजनी सदा, मान कंवारी मन्न।
गुङ भोजन प्रथम गिणो, आपे सुकवी अन्न।
ल्याई गुल री लापसी, कज भोजन कच्छराय।
पूज चढे आहिज प्रतख, मन भावे महमाय।।
आज जुडिया मे उसी सात हाथ की दूरी पर पूर्व स्थापित मूर्ति को यथावत रखते हुए भव्य व विशाल मंदिर का निर्माण किया गया है। सभी समाज के श्रृद्धालू मां के प्रति अगाढ श्रद्धा रखते हुए अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर धन्य समझते हैं। मातेश्वरी सैणीजी की प्रेरणा से श्री सैणलाराय सेवा संस्थान जुडिया व समस्त भक्तों के सहयोग से भगवती सैणीजी के जयंती महोत्सव का आयोजन प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल नवरात्रि में सप्तमी को भव्य रातिजोगे व अष्टमी को विशाल शोभायात्रा व अन्य कार्यक्रमों के रूप मे करता है। इसमें भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों से व जुडिया के आसपास के हजारों की तादाद मे श्रृद्धालू भाग लेते हैं। जुडिया मे भगवती सैणीजी की असीम कृपा रहती है तभी कवि कहते हैं-
धिन धिन ऐ धोराह, वैदा सदू विराजिया।
सकवि रहे सोराह, शरण तिंहिरी शंकरी।।
जुडिया से प्रस्थान करने के बाद सैणीजी की यात्रा के अगले पड़ाव- दिल्ली के बारे में ही ज्यादा जानकारी मिलती है। दिल्ली पर उस समय अल्लाउद्दीन खिलजी का शासन था। जालोर के मालदेव सोनिगरा उसके दरबारी सामंत थे। सैणीजी मालदेव सोनिगरा के घर विराजी। यह तथ्य जब खिलजी को पता चला तब उसने सैणीजी के शक्ति का अवतार व देवी स्वरूपा होने के तथ्य को चुनौती देते हुए कहा कि यदि वे शक्ति का अवतार हैं तो वेरी गुफा में प्रवेश कर दिखाऐ। उस गुफा में जाने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता था। सैणीजी ने चुनौती स्वीकार कर उस भयंकर गुफा मे प्रवेश किया। प्रवेश करते ही गुफा स्वत् प्रकाशमान हो गई। मालदेव भी साथ ही थे। उनसे सैणीजी ने कहा कि डरना मत। तूं राजपूत है, हिम्मत कर और मुंछो पर ताव दे। मालदेव ने कहा कि उसके तो मूंछें ही नहीं है। वह किस पर ताव दे। भगवती ने उससे कहा कि वे जैसा कहे वैसा कर। मालदेव के मूंछो पर हाथ फेर ताव देते ही बङी बङी मूंछें स्वत उग आई। इस कृपा के कारण वह मालदेव मूंछाला कहलाया। मूढमति विधर्मी अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन के जल्दी ही समाप्त होने व फिरोज तुगलक के नये शासक होने की भविष्यवाणी कर आगे हिमालय की यात्रा पर प्रस्थान किया। भविष्य वाणी फलित हुई। राज्य प्राप्ति पर कृतज्ञता जताते हुऐ फिरोज ने दिल्ली में सैणी जी की मूर्ति स्थापित करवाई।
तेरह समत तेहोतरे, गयो तुर्क तजद गात।
मूरत थापन मां री, हथनापुर निज हात।।
दिल्ली के आगे की यात्रा में केवल द्रास (कश्मीर) पंहुचने के बारे में ही जानकारी मिलती है। यहां हिमालय मे हेमाग्रह नामक स्थान पर बर्फ में बैठकर समाधिस्थ होकर अपनी आत्मा को पुनः मूल स्वरूप आदि शक्ति हिंगलाज माता की पावन ज्योति मे समाहित होकर इस नश्वर देह को तज दिया। करगिल क्षेत्र स्थिति द्रास मे वहां भगवती सैणीजी का छोटा मंदिर है।जिसकी पूजा बौद्ध लामा कन्या द्वारा की जाती है।- कुछ विद्वानों ने, कुछ गूगल पाठशाला के ऋणी लोगों ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए सैणीजी के इतिहास को केवल ऐक घटना के दायरे में सीमित कर प्रेम कथा के रुप मे ही स्थापित करने की अति उत्साही भूल की है। आदिशक्ति हिंगलाज के आशीर्वाद स्वरूप सैणीजी की उम्र मात्र चौदह वर्ष तक ही नियत थी। भला चौदह वर्ष की अबोध वय बालिका भी कभी प्रेम की नायिका हो सकती है? क्या ऐक सांसारिक प्रेमिका इतने लोकहित, पर्यावरण संरक्षण, भक्तों की मनोकामना पूर्ति करने वाली व गुजरात से कश्मीर की सुदीर्घ व कठिन यात्रा कर सकती है? ऐक सामान्य प्रेमिका के द्वारा इतने परचे परवाङे देना व जनमानस में लोवङियाल लोकशक्ति के रुप पूजित होना भी संभव नहीं हो सकता। व ना ही इतने लोककल्याणकारी, पर्यावरण संरक्षार्थ व, देवीय चमत्कारिक कृत्य ही कर सकती है।
राजस्थानी वाता भाग-1 सं. नरोत्तम स्वामी व राजस्थानी वात साहित्य सं. मनोहर शर्मा मे छपी कहानी “वात सयणी चारणी री” को आधार बनाकर कुछ अल्पज्ञ लेखकों ने सैणीजी को वींझाणद की प्रेमिका स्वयं भू रुप से घोषित कर अनर्गल प्रलाप करते हुए कहानियां व कविताएं लिखी। जबकि इसी कहानी के समाहार तक ऐसी एक भी बात नहीं लिखी गई जिससे विदित हो कि यह कोई प्रेमकथा है। कहानी के समापन पर लिखा है—
“ताहरा सयणी जाइ हीमाले गली”। इसी कहानी के शुरुआती अंशों मे उद्दृत है कि “वैदो चारण बेकरे गाम रहे, कछ देश मांहे। वैदे रे वडो द्रव्य। सयणी बेटी। महासक्ति योगमाया। तिका सिकार रमे। नाहर मारे।” वार्ताकार भी सैणीजी को महाशक्ति योगमाया ही मानता है। सैणीजी ने वींझाणद को भौतिक व नश्वर संसार से ऊपर उठाने का व अपने दैवीय तत्व से परिचित कराने का प्रयत्न किया। जगत कल्याण के लिए दैवीय लीलाओं का प्राकट्य कर पूर्व निर्धारित आयु पर नश्वर देह को त्याग हिम समाधि लेकर अपने मूल स्वरूप आदि शक्ति हिंगलाज मे समाहित हुई। अपने यात्रा पथ मे जगह जगह लोककल्याणार्थ, पर्यावरण व जलसंकट निवारणार्थ परचे व आशीर्वाद दिये। उनके जगह जगह स्थित मंदिरों में आम जनमानस अगाध श्रद्धा रखता है। उनके दिखाये पर्यावरण संरक्षण की परंपरा में ओरण अर्पण, जल संरक्षण आदि कार्य अकूत श्रद्धा भाव से करता है। डिंगल की सुदीर्घ व समृद्ध साहित्यिक भक्ति की निर्मल भावना मे महाशक्ति सैणी जी की आराधना भी अन्य देवियों के समान ही की है।चारण साहित्य परंपरा मे मां सैणीजी आद्यशक्ति हिंगलाज का अवतार मानी जाती है जिन पर सैकड़ों छंद -गीत कवियों ने प्रणीत कर उनके प्रति अपनी अगाध आस्था का परिचय दिया है। इन छंद-गीतों मे इनका समग्र चारू चरित्र गुंफित है।
यथा–
संग सैणल देवल आद सकतिय, लांगिय, छाछिय होलवियूं।
खुङियार, बिरव्वङ, आवङ खूबङ, आद सु राजल नागवियू।।
सुध मात रवेचिय है, डूंगरेचिय, चालकनेचिय तैण समे।
दुतिगात प्रकासत रात चवदस, रंग करनल्ल मात रमे।।
(मेहाजी बीठू झिणकली)
खेलो खेतल जीझयल्ल, चैचीयल वीसरे।
सैणी देवल्ल सावभल्ल, आछथल्ल ऊतरे।
(कवि चंदजी)
सिव देवी तूंही, य तूंही सैणल, खरी देवल खूबङा।
वड देव वङिया पाट बिरव्वङ, लिया नवलाख लोवङी।
नितवलां अनबल दियण नरही, बला पूरण बिरवङी।।
(कानूजी मोतीसर माङवा)
सैणल तूंही जुढिये सुथान।
बिरवङ तूं देवल कलावान।।
(रामदान जी तोलेसर)
भांजण केविया त्रिशूल लिया भुज, दुख मेटण सुख देणी।
बीसहथी रिछपाल बिराजो, सांप्रत जुढिये सैणी।।
(कवि आवङदानजी लालस जुडिया)
हाल विचार हेमाले को डोहन, क्रोध करे पतसाह अटकाई।
काछेली रीझ करी सहियां कुल, सैणल गाल दीनी पतसाही।।
राजबाई सैणीह, खोङी बिरबङ खूबङी।
विघन हरण बाईह, न्यारी नह मेहासधू।
(महाराजा गजसिंह जी बीकानेर)
सैणला कवेसां पाय सांसणां वधार सीगो, हेला हाथी ऊंठ वाप दीवारो हमेस।
उक्कती समापो आछी जोङ बीस हाथ वाली, कहे पनो काट काली काया रो कलेस।।
(पनाराम जी मोतीसर दादूपंथी)
पिछली सदी मे अस्सी के दशक मे “और जंतर बजता रहा” शीर्षक से ऐक लघु चित्रकथा का श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन राजस्थान पत्रिका नामक समाचार पत्र में किया गया। राजस्थानी सबद कोस के शिल्पी पद्मश्री डॉक्टर सीतारामजी लालस के जीवनवृत्त पर पुस्तक लिखने वाले स्व.शुभकरणजी देवल ने अपनी पुस्तक में इस बात का उल्लेख किया है कि राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित उक्त चित्रकथा पर उन्होंने सीतारामजी लालस से इसकी प्रमाणिकता पर चर्चा की। तब उन्होंने कहा था कि यह मात्र कपोल कल्पित व अल्पज्ञान पर आधारित अवधारणा मात्र ही है। ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध ही नहीं है। काव्य कलरव के कुछ सदस्यों के श्री मोहनसिंह रतनू (से.नि.डी.वाई.एस.पी.) के नेतृत्व में वर्ष 2018-19 मे की गई गुजरात यात्रा के दौरान सैणीजी के जन्म स्थान गौरवियाली गांव मे वहां के मौजीज विद्वजनो से भी “और जंतर बजता रहा” नाम से बनी लघु फिल्म पर चर्चा की गई। तब उन विद्वानों ने हमें बताया कि आई सैणबाई के जीवन चरित्र मे ऐसा कोई ऐतिहासिक तथ्य मौजूद नहीं है। गुजराती डिंगल पिंगल साहित्य के व लोककथाओं के संग्रहकर्ता जवेरचंद मेघाणी से विचार विमर्श कर इस लघुफिल्म का विरोध किया गया। इस तथ्यों से परे लघु फिल्म पर रोक लगवाई गई। उन विद्वानों ने ऐसा बताया था। भगवती सैणीजी तो हिंगलाज माता का अवतार व देवी स्वरुपा ही थी।
प्रेषित-
संग्रहकर्ता व लेखक-
हिंगलाजदान लालस भाटेलाई
अध्यक्ष श्री सैणलाराय सेवा संस्थान जुडिया।
मां सैणीजी अवतार परिचय
गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में ओजत नदी के किनारे स्थित घोरडियाला गांव में वेदोंजी नाम के चारण भक्त कवि रहते थे ! वैदोजी हिंगलाज मां के परम उपासक व सरल हृदय के व्यक्ति थे ! जीविकोपार्जन हेतु काव्य सृजन व कृषि कार्य करते थे, वेदोंजी की माताजी का नाम मोगल था जो अपनी देव्यशक्ति के कारण संपूर्ण सौराष्ट्र क्षेत्र में मोगल मच्छराली के नाम से प्रसिद्ध हुई ! वैदाजी के जीवन में संपन्नता के साथ उनका निसंतान होना उनके लिए दुख का कारण बन रहा था उन्हें प्रतिदिन सामाजिक तानों का सामना करना पड़ रहा था ! उनकी धर्मपत्नी हंसाबाई ने उन्हें आद्या शक्ति मां हिंगलाज के दर्शनार्थ सिंध प्रांत में स्थित बलूचिस्तान जाने का आग्रह किया !
वैदाजी ने अपनी पत्नी की प्रबल जिज्ञासा से प्रेरित होकर हिंगलाज मां के दर्शनार्थ बलूचिस्तान की यात्रा हेतु प्रस्थान किया, प्राचीन काल में हिंगलाज यात्रा बहुत ही दुर्गम थी परंतु देवी भक्त वैदाजी अनेकानेक कठिनाइयों से गुजरते हुए बलूचिस्तान पहुंचे ! माँ हिंगलाज का ध्यान कर के अपने ह्रदयोदगार करूण स्वर में स्तवन करने लगे —
माता अरजी मान, सुत कारण कव सरण में !
कव की सुणलो कांन, वैदा वंश वधारजौ !!
वैदाजी के आर्त स्वर सुनकर मां हिंगलाज साक्षात दर्शन देकर कहने लगी —
सिद्ध वैदा घर सांचरो, अम्ब पूरेला आस !*
मैं आंसू नव मास माय, पाथु बुझावण प्यास!!*
सांच नांम सूरराय रो, वैदा नाम न ब्याह !
हैमाले गल हरख सो, धरजे सुकवि घ्याव !!
मां हिंगलाज से इच्छित वरदान प्राप्त कर वैदाजी कहने लगे हे मां में आपकी आज्ञा पालन करते हुए अपनी सुपुत्री का नाम सैणी रखूंगा तथा उसके विवाह के प्रसंग में सदा मौन ही रहूंगा मां हिंगलाज की आज्ञा पाकर वैदाजी प्रसन्नचित होकर भगवती के चरणों में शीश नमन कर अपने गांव घोरडीयाला हेतु प्रस्थान किया और घर पहुंचकर मां हिंगलाज की ज्योति व जल से घर पवित्र कर जलपान किया तथा समूचा यात्रा वृतांत अपनी धर्म पत्नी हांसी को सुनाया !
मां हिंगलाज के वरदान स्वरुप विक्रमी संवत 1346 चैत्र शुक्ल अष्टमी के पावन दिन को शुभ नक्षत्र में माता हांसी के गर्भ से मां हिंगलाज स्वयं अवतरित हुई !
वैदाजी ने मां हिंगलाज की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए सुकन्या का नाम सैणी रखा !
मां सैणी के जन्म पश्चात अपने पितृ ग्रह में बालोंचित्त क्रीडाओ से वैदाजी का घर स्वर्ग की भांति प्रकाशित होने लगा सैणी की क्रीडाए सभी का मन हरण करने लगी ! समय बीतता गया और पलक झपकते ही 13 वर्ष पल में बीत गए !
मां सैणी जी के सांसारिक माता पिता को एक चिंता ने आ घेरा की सैणल 13 वर्ष की हो गई है यह चिंता स्वाभाविक ही थी परंतु मां हिंगलाज की आज्ञा अनुसार अपनी सुपुत्री के विवाह के प्रसंग पर वार्तालाप करना अनुचित था सामाजिक दृष्टिकोण व मर्यादा का भी पालन करना था अतः वेदा जी व हंसाबाई को निरंतर चिंता बनी रहने लगी कि इस धर्म संकट से कैसे निजात पाई जाए !
पिताजी की मानसिक स्थिति व दुख को देखकर मां सैणी ने अवसरानुकूल माता हंसाबाई से पिताजी के दुख के विषय में पूछ ही लिया ! सैणी के पूछने पर माता हंसाबाई ने कहा है सैणी जब कन्या युवावस्था में पहुंच जाती है तो उसका विवाह करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है वे माता पिता जो ऐसा नहीं करते या समय पर उचित प्रसंगवश कार्य को गति नहीं देते हैं उन्हें कुंभीपाक नरक में भी जगह नहीं मिलती अतः है मेरी लाडली अब आप ही बताएं क्या किया जाए क्योंकि मां हिंगलाज की आज्ञा अनुसार आपकी विवाह प्रसंग की बात ना करने के वचनबद्ध है !
मां सैणी मंद मंद मुस्कान के साथ कहने लगी हे माता आप व्यर्थ की चिंता कर रही हैं आद्या शक्ति मां हिंगलाज ही इस चिंता का निवारण करेगी जो उचित समय पर मां हिंगलाज की आज्ञा अनुसार ही होगा !
जगदंबा मां हिंगलाज की आज्ञानुसार व सैणी के वचनानुसार वैदाजी और हंसाबाई की चिंता में कमी आई पर सांसारिक व सामाजिक दृष्टि से चिंतात्तुर होना स्वाभाविक था !
ठीक उसी वर्ष श्रावण मास की तृतीया तिथि के दिन मां सैणी अपनी बाल सखियों के साथ तालाब पर शिव पूजन के पश्चात खेल रही थी समीप ही एक युवक बंशी बजा रहा था उसके मधुर वंशी वादन से मधुर मधुर स्वर लहरियां निकल रही थी उसके वादन से जंगल की तरफ से पशु-पक्षी हिरण व नागों के झुंड के झुंड तस्वीरों चित्रों की भांति वहां खड़े हुए !
मां सैणी ने एक छोटी मादा मृग को अपनी गोद में लेकर स्नेह से खेलने लगी और अपने गले का स्वर्ण हार उस छोटी मादा हिरण के गले में डाल दिया !
इतने में ही उस गायक ने अपनी रागिनी को बंद कर दिया और हाथ से ताली बजाकर उन पशु पक्षियों के झुंड को भगा दिया ! मां सैणी का हार उस हरिणी के गले में रह गया वह हरिणी दूर जंगल में चली गई ! हार की चिंता में मातेश्वरी ने उस युवक से पुनः बंशी के स्वरुप से रागिनी करने को कहा तथा अपना परिचय देने को कहा ! उस युवक ने स्वयं का नाम विजानन्द बताया जो भांचलिया शाखा का चारण था और 36 राग-रागनियों का जानकार था !
विजाणंद बिना सोचे समझे ही कहने लगे कि मैं दुबारा राग तब ही करुंगा जब आप मेरे साथ विवाह का वचन दें !
मां हिंगलाज स्वरुप सैणी क्रोधाग्निवश कहने लगी अरे मूर्ख तू अज्ञान के समुद्र में डूब गया परंतु मैं हार प्राप्ति के लिए तेरे से वचन लेकर वचन दूंगी !
विजाणंद ने अपने वाद्य से पुनः मधुर राग कर पूर्व की भांति नागो व पशु पक्षियों के झुडों को एकत्रित किया ! मां सैणी ने उस सुंदर मृगी के गले से हार ले लिया !
मां हिंगलाज स्वरुप सैणी स्वयं सामर्थ्यवान थी परंतु विजाणंंद की मुर्खता और संसार के प्रति शक्ति अवतार में श्रद्धा उत्पन्न करना ही उद्देश्य था मां सैणी ने अपने स्वयं के वचन निभाने हेतु विजाणंद से वचन लेकर कहा कि 15 दिन के भीतर निष्कलंक सवामण मोती जो सीप से उत्पन्न हो, लेकर आना तब ही वचनों की पालना होगी !
तत्पश्चात मां सैणी अपनी सखियों के साथ घर की ओर तथा विजाणंद मोतियों की तलाश में प्रस्थान किया ! मां सैणी घर पहुंचकर अपने जनक जननी से प्रणाम कर हिंगलाज यात्रा के लिए आज्ञा मांगी और कहने लगी हे तात मैं आपकी बांझ अभिशाप को मिटाने हेतु 14 वर्ष तक मेहमान बन कर आई थी अतः अब मुझे आज्ञा दीजिए जिससे मैं मां हिंगलाज में समा सकूं !
मां हिंगलाज के वचनोंपाश में बंधित वैदाजी ने सहर्ष एक रथ व रावल खैमड को सारथी के रूप में तुरंत तैयार किया और सैणी को हिंगलाज की शरण हेतु विदा किया ! महातपस्वी चारण वैदाजी ने अपनी कन्या रत्न सैणी को वचनबद्धता से मां श्री हिंगलाज में लीन होने की विदाई दी !
गोरडियाला गाँव से रवाना होकर मातेश्वरी ने ओझत नदी के किनारे बसे ‘धारी गूंदाली’ गांव में विश्राम लिया ! नदी किनारे वट वृक्ष के तने पर मां सैणी ने अपने हाथ का निशान (हथेली) को सहनाणी के रूप में अंकित किया जो आज तक अंकित है इस वट वृक्ष को “वैदवड” के नाम से जाना जाता है
धारी गुंदाली से मां भगवती ने “कुंवर गांव” में विश्राम लिया ! कुंवर गांव के निवासी धोलजी भरवाड ने मातेश्वरी का स्वागत कर सेवा की ! धूलजी की सेवा भावना से प्रसन्न हो मातेश्वरी ने मनवांछित वरदान दिया ! धोलजी निसंतान के अभीशाप से ग्रषित थे ! 70 वर्ष की अवस्था में धोलजी को पुत्र रत्न की प्राप्ति मातेश्वरी मां सैणी के आशीर्वाद से हुई कुंवर गांव से मां सैणी ने *मांगलोर* स्थान पर विश्राम किया , मातेश्वरी ने वहां घेसिया पटेल से अपने बैलों को पानी पिलाने को कहा ! मांगलौर में पानी की अल्पता होने पर भी पटेल ने मातेश्वरी की आज्ञा का पालन कर सेवा की ! मां सैणी ने जल आपूर्ति का वरदान दिया और अपने दातुन की टहनी को वहां रोपित किया, वह टहनी हरी भरी हो गई जो आज “गणजो” पेड़ के रूप में विद्यमान है इन गंणजों को कुछ लोग जामुन के नाम से जानते हैं !
मांगलोर से मां सैणी जी ने प्रस्थान कर जालौर जिले के “केर धूलिया” गांव में विश्राम किया रात्रि के समय रथ के बैलो द्वारा एक चंवला ऊगे खेत में काफी नुकसान हो चुका था, प्रातः जब खेत के मालिक जिनका नाम “मेहरोजी” था खेत पर आए तो अपने खेत की फसल में हुए नुकसान से क्रोधित होकर मातेश्वरी के रथ को रोक दिया और अपने नुकसान की भरपाई की मांग करने लगा परंतु मातेश्वरी ने मेहरोजी के असत्य करने की चाहना से संपूर्ण खेत में चंवला की जगह आंबलिया ऊगवा दी !
इस चमत्कार को देख मेहरोजी आश्चर्यचकित होकर मां सैणी के चरणों में पड़ क्षमा याचना करने लगे !
आज भी वहां आंबलियों के वृक्ष लगे हैं जिन्हें सैणी जी महाराज का ओरण माना जाता है और सुरक्षित रखा जाता है !
धूलिया गांव से मातेश्वरी सैणी मां “फलसूंड” में विश्राम किया मां सैणी जी ने ग्राम वासियों से अपने बेलों को पानी पिलाने की मांग कि ! उस समय फलसूंड की जल बेरियां दो हिस्सों में थी एक हिस्सा चारणों के पास तो दूसरी बेरिया राजपूतों के पास थी, चारणों ने अल्पज्ञता के कारण स्पष्ट मना कर दिया कि हम स्वयं जल के अभाव से पीड़ित हैं, जल खारा है तो आपके बैलों को पानी कहां से पिलाएं ? जबकि राजपूतों के हिस्सों वाली बेरिया पर उपस्थित राजपूत सरदारों ने मातेश्वरी की अच्छे आदर सत्कार के साथ बैलों की जल तृष्णा को संतृप्त किया ! मातेश्वरी की कृपा से महाचमत्कार हुआ कि राजपूतों वाली बेरियों में शहद की भांति मीठा जल जबकि चारणों वाली बेरियों में विष समान कड़वा जल हो गया ! जो आज भी समान रूप से चमत्कृत है आज भी फलसूंड का जल मीठा और चारणों के हिस्से का जल कड़वा है यह क्षेत्र आज “कजोई” के नाम से जाना जाता है !
मातेश्वरी मां सैणी जी का छठा विश्राम ग्राम जुडिया में हुआ जहां लालस शाखा के चारण लुणोजी को शासन था !
विक्रम संवत 1360 के आसपास मां भगवती सैणी जुडिया ग्राम में विश्राम हेतु राजगढ़ धौरे पर अपना रथ ठहराया, यह स्थान वर्तमान में सोवनथली के नाम से प्रसिद्ध है !
मातेश्वरी ने अपने सारथी खैमड जी को भेजकर लुणोजी से बैलों को जल तृष्णा मिटाने का आग्रह किया जल की कमी होते हुए भी लुणोजी ने मातेश्वरी की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार किया और जल के भारीपन को नष्ट करने के लिए गायों के दूध मिश्रित जल से बेल्यों की जल तृष्णा को शांत किया और मातेश्वरी से हाथ जोड़ आग्रह किया कि हे मां पेयजल की कमी को पूरा करें ! मां ने तथास्तु के साथ वरदान दिया !
लुणोजी ने मातेश्वरी से प्रसाद निमंत्रण स्वीकार करने को कहा, मां ने प्रसाद स्वीकार किया और कहा बाबाजी आपका ही प्रसाद हैं पर एक सेठ कन्या सजनी प्रसाद लेकर आ रही है मैं वही प्रसाद सेवन करूंगी क्योंकि सजनी शक्ति का अंश है !
नाहटा सजनीबाई ने गुड की लापसी बनाकर मातेश्वरी को प्रसाद ग्रहण करवाया उसी समय मां सैणी भगवती ने वर दिया कि आज से मेरा प्रसाद गुड का ही होगा ! इस मर्यादा को बनाए रखना सभी का हित होगा !
मां हिंगलाज अवतार भगवती सैणी ने प्रसाद ग्रहण कर दातुन किया तत्पश्चात दातुन की टहनी जमीन में रोप दी और सजनीबाई को वरदान दिया कि यह नीम की टहनी हरी भरी हो जाएगी और विशाल वृक्ष का रूप धारण करेगी इसकी रखवाली लूणाबाबा एवं उनके वंशज करते रहेंगे !
आज जुडिया में जहां भी नींम के वृक्ष हैं वहां मातेश्वरी का ओरण माना जाता है तथा पवित्रता के साथ सरंक्षण का ध्यान रखा जाता है !
मां हिंगलाज स्वरूपा सैणी जी ने दूसरा वरदान लुणोजी को दिया और कहा की है लुणाबाबा तुम्हारे कुएं में प्रातः काल जल के प्रबल वेग से प्रवाह आएगा तथा उसके साथ एक मूरत उछलकर कुए से सात हाथ दूर ठहरेगी वही पर उसे स्थापित कर देना व पूजन प्रारंभ कर देना कुएं में अथाह जल हो जाएगा मां सैणी की कृपा से अथाह जल की प्राप्ति हुई लुणोजी को आशीर्वाद प्रदान कर करुणामई मां ने आगे की यात्रा हेतु प्रस्थान किया !
वर्तमान में चैत्र के शुक्ल पक्ष की सप्तमी अष्टमी को ममतामई मां के जन्म दिवस को उत्सव की भांती हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में मनाया जाता है !
जुडिया से प्रस्थान कर मातेश्वरी ने अपना यात्रा ठहराव दिल्ली में किया जहां सोनगरा शाखा के चौहान मालदे के घर विश्राम किया, मां भगवती की सेवा व आदर सत्कार किया यहां भी मां ने बेरी की गुफा में जाकर वापस आने का पर्चा बादशाह अलाउद्दीन को दिया !
इसके बाद मा हिंगलाज स्वरुप मां सैणी हिमालय की राह में अपने तपोबल की गति से हिमा पर्वत के निकट जा पहुंचे हिमा पर्वत हिंगलाज रुप शक्ति को आते देख हर्षित हो पास आकर प्रणाम किया !
महाशक्ति महामाया ने हेमाग्रह में हिमालय की गोद में बैठकर हिंगलाज की ज्योति में ज्योति मिलाई ! स्वामिभक्त खैमड जी सारथी ने भी अपना शरीर उसी हेमाग्रह को अर्पित कर दिया !
हिमालय में यह स्थान द्राश अंचल में आता है जहां सैणल कुंड है जिसमें सदैव गर्म जल रहता है मां सैणी का छोटा सा मंदिर है जिसकी पूजा लामा जाति की छोटी कन्या के द्वारा की जाती है
धन्य है माता पिता, धन्य है सारथी खैमड जी और धन्य है धेनु शिशु जो रथ में जुत कर मां सैणी को हिंगलाज की शरण में ले गए !
प्रेषक– गणपतसिंहचारण मुण्डकोशिया