Sat. Apr 19th, 2025

प्रशंसा बहुत प्यारी है,
सभी की ये दुलारी है,
कि दामन में सदा इसके,
खलकभर की खुमारी है।

फर्श को अर्श देती है,
उमंग उत्कर्ष देती है,
कि देती है ये दातारी,
हृदय को हर्ष देती है।

दिलों में वास इसका है,
यही घर खास इसका है,
कि इसकी मोहिनी अदभुत,
सकल जग दास इसका है।

जिगर से जिगर तक जाती,
जिगर की जादुई थाती,
इसे पाने से हो जाती,
है छप्पन इंच की छाती।

हार को जीत में बदले,
खार को प्रीत में बदले,
करिश्माई ये ऐसी है,
कि गाली गीत में बदले।

निराशा को झटकती है,
हताशा को पटकती है,
अभय करती है इंसां को,
कि भय की रान कटती है।

मगर ये स्वार्थ का पानी,
हकीकत कर रहा हानी,
कर्म को दाद देने की,
बात अब बात बचकानी।

हैं इसके रूप बहुतेरे,
जटिल उलझे हुए घेरे,
ये घेरे रंग बदलू है,
कभी तेरे कभी मेरे।

ये घेरे कौन सुलझाए,
जो आए सो उलझ जाए,
नहीं पाए सो ललचाए,
जो पाए सो न कल पाए।

दवा पे मर्ज भारी है,
प्रशस्ति-गान जारी है,
अहो रूपम् अहो ध्वनिः,
सभी को ये बीमारी है।

अभी का दौर ऐसा है,
प्रबल पद और पैसा है,
प्रशंसा है प्रशंसा ही,
अटल इसमें अंदेशा है।

प्रशंसा एक करता है,
तो दूजा मौन धरता है,
तीसरा पीटता ताली,
कि चौथा आह भरता है।

कहो कैसे समझ आए,
हमें ये कौन समझाए,
कि किसके भाव सच्चे हैं,
परख ये कौन कर पाए।

कर्म की बात बेमानी,
धर्म की बात शैतानी,
शर्म के मायने बदले,
मर्म के साथ मनमानी।

गेम का गूढ़पन जानो,
माजरा क्या है पहचानो,
कि जिनके ‘गोडफादर’ हैं,
उन्हीं को ‘जीनियस’ मानो।

बिना कद उच्च पद आए,
उसे कब वो पचा पाए,
अजा के कण्ठ का तूंबा,
निगल पाए न उगल पाए।

दाद ले दाद देने से,
वनिकवत स्वाद लेने से ,
जड़ें ख़ुद सूख जाती हैं,
बिना कद खाद देने से।

बिना औकात का पाना,
बिना सुर-राग का गाना,
उसी पे पुल प्रशंसा के,
कि जिससे अहम का आना।

पात्रता जाँच कर बोलो,
न्याय की ताकड़ी तोलो,
कर्म का मर्म परखो फिर,
जुबां से वाह-वाह् बोलो।

~डाॅ. गजादान चारण “शक्तिसुत”

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