पूरा नाम | कुंवर प्रतापसिंह बारहठ |
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माता पिता का नाम | पिता क्रांतिकारी बारहठ केशरीसिंहजी व माता माणक कुँवर |
जन्म व जन्म भूमि | वि.सं.1950 ज्येष्ठ शुक्ला नवमी तदनुसार दि. 24 मई 1893 को उदयपुर में हुआ |
शहीद दिवस | |
बरेली जेल के रजिस्टर में लिखे गए पृष्ठ संख्या 106/107 के अनुसार संवत 1975 की बैसाखी पूर्णिमा तदनुसार दिनांक 24 मई सन 1918 को मात्र पच्चीस वर्ष की अल्पायु में ही अंग्रेजों की क्रूर नारकीय यातनाओं को झेलते झेलते यह क्रांतिकारी अपने 25वें जन्म दिवस पर सदा के लिए गुलामी के बंधन तोड़कर शहीद हो गया | |
अन्य | |
प्रताप का महत्व सिर्फ इस लिए ही नहीं है कि वो अल्पायु में ही शहीद हो गए थे, बल्कि इसलिए भी है कि वो उस परिवार से नाता रखते हैं जिस परिवार ने अपना पूरा खानदान क्रांति की राह में झौंक दिया था। पिता केसरीसिंहजी, चाचा जोरावरसिंहजी, जीजा ईश्वरदानजी आसिया और स्वयं प्रताप। इस देश के इतिहास में ऐसे सिर्फ दो परिवार हुए है जिन्होने अपने पूरे खानदान को राष्ट्रहित पर बलिदान किया हो। एक तो दसमेश गुरु श्री गोविंदसिंहजी महाराज का परिवार और दूसरा राजस्थान का ये बारहठ परिवार। | |
जीवन परिचय | |
कुँवर प्रतापसिंह बारहठ भारतीय इतिहास गगन-पटल पर चमकने वाला एक ऐसा उज्ज्वल नक्षत्र है, जिसने अपने कर्म से न सिर्फ अपने परिवार को, न सिर्फ अपने समाज और जाति को, न केवल राजस्थान को बल्कि पूरे भारत-वर्ष को गौरवान्वित किया था। देश की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुती देने वाले अमर शहीद कुंवर प्रताप सिंह का जन्म पिता क्रांतिकारी बारहठ केशरीसिंहजी के घर माता माणक कुँवर की उज्ज्वल कोख से वि.सं.1950 ज्येष्ठ शुक्ला नवमी तदनुसार दि. 24 मई 1893 को उदयपुर में हुआ। उनकी शिक्षा दयानंद स्कूल जैन बोर्डिंग में हुई थी। अल्पायु में पिताश्री ने बालक प्रताप को अर्जुनलाल सेठी की गोद में सौंप दिया था जिन्होंने उनको मास्टर अमीचंद के पास भेज दिया। अमीचंद ने रासबिहारी बोस से मिलकर प्रताप और उनके साथियों को रेव्योलूशनरी पार्टी में भर्ती करवा दिया और बोस के निर्देशन में बालक प्रताप एक युवा क्रांतिकारी में परिवर्तित हो गया। रासबिहारी बोस ने अपने एक पत्र में लिखा है, “प्रताप को देखा था तो मालूम हुआ कि उसकी आँखों से आग निकल रही है। प्रतापसिंह प्रकृति से ही सिंह था।” प्रताप ने अपने चाचा जोरावरसिंह के साथ ही अपने शाहपुरा के विशाल प्रासाद को मार्च सन 1914 के तीसरे सप्ताह में अंतिम प्रणाम किया। 31 मार्च को केसरी सिंह के परिवार के समस्त पुरुषों पर वारंट निकले। चाचा भतीजे ढूंढें गए पर कहीं न मिले। जाने से एक दिन पूर्व प्रताप ने अपनी माता से कहा – “धोती फट गयी, कहीं से तीन रुपये का प्रबंध कर दो, तो धोती ले आऊँ, आज ही चाहिए।” माता के हाथ तो रिक्त थे, इधर उधर प्रयत्न करने पर भी दो रुपये मिले जो पुत्र को दे दिए। प्रताप के लिए माता का दिया हुआ वह अंतिम पाथेय था। बिना कुछ कहे मन ही मन माता को अंतिम प्रणाम कर सायंकाल होते होते वे निकल पड़े। कोटा शहर में पिताजी के एक मित्र के पास पहुंचे, कहा “जो कुछ भी तैयार हो सो ले आओ, भोजन यहीं करूँगा।” भोजन करते समय मित्र ने कहा–“कुंवर साहब अब क्या इच्छा है ? प्रताप ने कहा शादी करना है। क्या कहते हो, शादी? आज तक स्वीकार नहीं किया और अब इस घोर विपत्ति में शादी? यह क्या सूझी है? हाँ, निश्चय शादी, लग्न भी आ गया है, उसी के लिए जाता हूँ। कहाँ? सब सुन लोगे” यह कहते हुए प्रताप ने जोर से “वंदे मातरम” का नारा लगाया और अद्रश्य हो गए। उसके बाद प्रताप को किसी ने कोटा शहर में नहीं देखा। दूसरे दिन प्रताप घर नहीं लौटे तो वही मित्र माता के पास आये और पिछले दिन की घटना बताई तो माता बोली “ठीक है, परन्तु उसने मुझसे नाहक ही छिपाया, में उसे तिलक करके विदा करती।” वीर प्रताप कोटा छोड़ कर सिंध हैदराबाद गए, लेकिन पंजाब को प्रताप की जब आवश्यकता हुई, तब आव्हान पाकर वे उधर लपके। हैदराबाद के कार्यों को दूसरों के हाथों सौंप कर गर्मी और भूख में भी 4-5 दिन जागकर वे रेल से जोधपुर होकर निकले। जोधपुर से आगे एक छोटे से स्टेशन आसानाडा पर स्टेशन मास्टर परिचित था। वहाँ ठहरकर कुछ आराम कर लेने, तथा कोई नई बात हो तो जान लेने के विचार से प्रताप वहाँ उतर पड़े। उन्हें क्या मालूम था कि वे एक विश्वासघाती के चंगुल में फंसने जा रहे हैं। स्टेशन मास्टर को इस बीच पुलिस ने प्रलोभन देकर तोड़ लिया व उसने धोखे से प्रताप को पकडवा दिया। फिर वे बरेली जेल में बंदी बनाकर रखे गए। यहाँ वाइसराय के विश्वासपात्र मंत्री चार्ल्स क्लीवलैंड ने उनसे अन्य साथियों के बारे में जानने के लिए तथा बम फेंके जाने के भेद को बता देने के लिए कई प्रलोभन दिए, कि तुम मुक्त कर दिए जाओगे, तुम्हारे पिता भी जेल से छोड़ दिए जायेंगे, तुम्हारे चाचा का वारंट रद्द कर दिया जायेगा। तुम्हारी सारी जागीर और गृह लौटा दिए जायेंगे। उसने प्रताप को कहा कि तुम्हारे लिए माँ फूट फूट कर रोती है। पर प्रताप पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 24 घंटे तक सोचने का समय देने के पश्चात जब चार्ल्स क्लीवलैंड वापस आया तो प्रताप ने तुरंत उत्तर दिया “में अपनी एक माता को हंसाने के लिए तेंतीस कोटि पुत्रों की माताओं को रुलाना नहीं चाहता।” इसके बाद अँगरेज़ सरकार ने एक और चाल चली। प्रताप को बरेली जेल से रेल में बिठाकर बिहार में हजारीबाग जेल में केसरी सिंह के दर्शन कराने लाये। पुलिस अधिकारियों ने कोटा षड़यंत्र में फंसाए गए काराबद्ध केसरी सिंह से कहा – “ठाकुर साहब, प्रताप को आपसे मिलाने के लिए लाये हैं। उनसे आप कह दीजिए कि वे सच्ची बात बतला दे, प्रताप और आप छोड़ दिए जायेंगे।” पुत्र की और कटु दृष्टि से देखते हुए कठोर शब्दों में पिता ने कहा – “प्रताप, तुम अपने कर्त्तव्य से विमुख हो उद्येश्य से फिर सकते हो, साथियों के साथ विश्वासघात कर उनका भंडाफोड कर सकते हो, लेकिन याद रखना, अपने पिता की गोली का निशाना नहीं चुका सकोगे। यदि तुम विचलित होकर फूट गए तो केसरी सिंह की गोली तुम्हारे सीने में होगी, यहाँ से छूटते ही में सबसे पहले तुम्हे जान से मारूंगा।” पित्र चरणों में प्रणाम करते हुए प्रताप ने कहा – “दाता में आपका पुत्र हूँ, मुझसे स्वप्न में भी देशद्रोह न होगा। ये लोग नाहक ही मुझे यहाँ घसीट लाए।” यह था पिता और पुत्र का अंतिम मिलन। प्रताप को वापस बरेली जेल ले आये। पुलिस ने उनके साथ अमानुषिक व्यवहार और अत्यधिक अत्याचार किया तथा अनवरत दमन चक्की में उनके शरीर को पीसा गया। निरंतर विद्युत झटके लगने से वे कंकाल मात्र रह गए थे। बरेली जेल के रजिस्टर में लिखे गए पृष्ठ संख्या 106/107 के अनुसार संवत 1975 की बैसाखी पूर्णिमा तदनुसार दिनांक 24 मई सन 1918 को मात्र पच्चीस वर्ष की अल्पायु में ही अंग्रेजों की क्रूर नारकीय यातनाओं को झेलते झेलते यह क्रांतिकारी अपने 25वें जन्म दिवस पर सदा के लिए गुलामी के बंधन तोड़कर शहीद हो गया। बरेली जेल में प्रतापसिंहजी से पूछ-ताछ करने वाले अंग्रेज़ अफसर आर्चीबाल्ड क्लीवलैंड ने उनसे पूछ-ताछ करने के बाद अपनी टिप्पणी में लिखा था, “मैंने आज तक प्रतापसिंह जैसा वीर और बिलक्षण बुद्धि वाला युवक नहीं देखा। उसे सताने में हमने कोई कसर नहीं रखी पर वह टस से मस नहीं हुआ। हम सब हार गए वह विजयी हुआ।” किसी अंग्रेज़ अधिकारी का यूं स्वीकार कर लेना कि, वो हार गए थे उस क्रांतिकारी के लिए सही मायने में जीत थी। प्रताप का महत्व सिर्फ इस लिए ही नहीं है कि वो अल्पायु में ही शहीद हो गए थे, बल्कि इसलिए भी है कि वो उस परिवार से नाता रखते हैं जिस परिवार ने अपना पूरा खानदान क्रांति की राह में झौंक दिया था। पिता केसरीसिंहजी, चाचा जोरावरसिंहजी, जीजा ईश्वरदानजी आसिया और स्वयं प्रताप। इस देश के इतिहास में ऐसे सिर्फ दो परिवार हुए है जिन्होने अपने पूरे खानदान को राष्ट्रहित पर बलिदान किया हो। एक तो दसमेश गुरु श्री गोविंदसिंहजी महाराज का परिवार और दूसरा राजस्थान का ये बारहठ परिवार। महान स्वतंत्रता सेनानी शचीन्द्र सान्याल ने बारठ परिवार और प्रतापसिंह के बारे में अपने संस्मरण में लिखा है, “यह परिवार राजपूताना के गणमान्य समृद्ध जमींदारों में गिना जाता था, किंतु स्वदेश प्रीति और तेजस्विता की खातिर इन्हें अपना घर-बार बर्बाद करना पड़ा।………….. प्रताप वैसे कर्तव्य की खातिर ही उस कार्य में योग नहीं देते थे। उन जैसे युवक मैंने बहुत ही कम देखें हैं। प्रताप केवल स्वयं ही आनंद में रहतें हों ऐसा नहीं, उनके संग में जो रहते थे वे भी आनंद पाते थे।……… मन में एक बार नीचे फिसल पड़ने पर उसे फिर अपनी जगह लौटा लाना कितना कठिन कार्य है, यह चिंताशील व्यक्ति ही समझ सकते हैं।” |