उर रख कोड अपार, रीझ कर त्यार रँगोली
प्रिया-विष्णु पधार, बहुरि मनुहार सुबोली।
सिंधुसुता सुखधाम, नाम तव है घणनामी।
तोड़ अभाव तमाम, अन्न-धन देय अमामी।
कवि अमर-सुतन ‘गजराज’ कह, मांडै धीवड़ माँडणा।
बेटियां हूंत घर व्है बडा, ओपै मनहर आँगणा।।
गाजर-रँग घेरोह, प्रथम इण ढंग पोळायो।
पछै माँड वृत पीत, अष्टदल सुमन बणायो।
सोहै नीली स्वेत, पीत गाजरिया पाँख्यां।
आछा दीपक आठ, एकटक निरखै आँख्यां।
‘गजराज’ अष्ट-सर फिर गज़ब, सकल हृदय सुख-सारणा।
अक्षिता चौक पूरै इसो, (म्हैं) वध-वध लेऊँ वारणा।।
नेम हूंत सिर नाय, नित्य उठ माय मनावै।
मो बाबुल पर महर, करो इम गाय सुणावै।
माँ हित मंगल भाव, भ्रात हित वारे-न्यारे।
कुटुंब-कबीलो कुसळ, राख इम अरज उचारे।
‘गजराज’ सकल सारै गरज, ऐ पावन गुण पेटियाँ।
बाप अर आप घर बे पखां, सुख सरसावै बेटियाँ।।
~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”