अपनी संस्कृति को दोहराना होगा
पाश्चात्य संस्कृति के धारणों,
खोटी तुम्हें सुनाने आया हूं।
जुंबा लें भारती का नाम,,
अपनी संस्कृति बतानें आया हूं।।
खोटी तुम्हें सुनाने आया हूं।
जुंबा लें भारती का नाम,,
अपनी संस्कृति बतानें आया हूं।।
अपनी संस्कृति को अपने,
देश में फिर से दोहराना होगा।
हमारी संस्कृति कैसी थी,,
उससे हरगिज़ हमें लाना होगा।।
देश में फिर से दोहराना होगा।
हमारी संस्कृति कैसी थी,,
उससे हरगिज़ हमें लाना होगा।।
भारतीय संस्कृति के साधकों
संस्कृति को बचाना होगा।
हवा में न गान निज कृत्य
हवा में न गान निज कृत्य
ओर देश हित में लाना होगा।।
हमारी संस्कृति हमारे ही,
देश का अभिन्न अंग हैं।
जिसको देखकर सम्मान से ,,
तन-मन को करती संग हैं।।
देश का अभिन्न अंग हैं।
जिसको देखकर सम्मान से ,,
तन-मन को करती संग हैं।।
सूनों ये भारत ही हैं जिसमें,
सुन्दरता का कोई सानी नहीं हैं।
फिर भी चलें तुम बदलने जबकी,,
पाश्चत्य तो इसका बानी नहीं हैं।।
सुन्दरता का कोई सानी नहीं हैं।
फिर भी चलें तुम बदलने जबकी,,
पाश्चत्य तो इसका बानी नहीं हैं।।
क्यूं कहते रहते की
अब संस्कृति अपनी बदल गयी।
या स्वयं बदलने के लिए
या स्वयं बदलने के लिए
इसे बदलन की बोली रखी गयी।।
अपनी ही माँ को सौतेली बनाते,
जबकी उसके ही वारिस कहलाते हों।
आज अपनी संस्कृति को भूल,,
और पाश्चात्य को शीश चढाते हों।।
जबकी उसके ही वारिस कहलाते हों।
आज अपनी संस्कृति को भूल,,
और पाश्चात्य को शीश चढाते हों।।
नये – नये के जादू-फैशन में,
अंधड भला कौन बन रहा।
संस्कार आचरण भूलकर,,
बासी मर्यादा कौन तन रहा।।
अंधड भला कौन बन रहा।
संस्कार आचरण भूलकर,,
बासी मर्यादा कौन तन रहा।।
पाश्चात्य इस देश में
नंगापन केवल दिखाती आयी हैं।
हिंद वासियों बताओं
हिंद वासियों बताओं
मर्यादा किसने हमें सिखायी हैं।।
जिसने सिखायी हों मर्यादा,
वही हमारी संस्कृति हैं भारती।
बदलाव न करों हिंद वासियों,,
वहीं रखों सम्मान की सारथी।।
वही हमारी संस्कृति हैं भारती।
बदलाव न करों हिंद वासियों,,
वहीं रखों सम्मान की सारथी।।
क्या चाहते हों इस देश में,
आखिर मूझे यहीं बतलादों।
क्यों बदल रहे देश के भूषण को ,,
सोच समझ अपनी बदलवा दों।
आखिर मूझे यहीं बतलादों।
क्यों बदल रहे देश के भूषण को ,,
सोच समझ अपनी बदलवा दों।
हिंद देश के लोगों
तुम हिंदुत्व ही क्यों नहीं फैलाते हों।
क्यों गिरगिट सा रंग बनाके
क्यों गिरगिट सा रंग बनाके
इसके सौन्दर्य को दफनाते हों।।
नहीं तो आये दिन इस देश में,
इसका असर रोज बढाओंगे।
जिसके ऊपर गरजा इसका कहर,,
उससे जिंदा ही दफनाओंगे।।
इसका असर रोज बढाओंगे।
जिसके ऊपर गरजा इसका कहर,,
उससे जिंदा ही दफनाओंगे।।
आखिर भले इस देश में अब,
क्यों जुर्म अधिक बढ रहा।
वेशभूषा,संस्कार औचित्य भूल,,
क्यों पाश्चत्य को अपने में गढ रहा।।
क्यों जुर्म अधिक बढ रहा।
वेशभूषा,संस्कार औचित्य भूल,,
क्यों पाश्चत्य को अपने में गढ रहा।।
कर्म, धर्म,कर्तव्य सब भूलाकर,
विदेशियों जैसा बता रही।
यहीं पाश्चात्य जो हमारी ही,,
यहीं पाश्चात्य जो हमारी ही,,
संस्कृति को अब सता रही।।
सताने वाले तो हैं भारती,
तेरे ही ये कपूत संतानें हैं।
मर्यादा को भी छोडकर,,
बढाती इसकी नित खाने हैं।।
तेरे ही ये कपूत संतानें हैं।
मर्यादा को भी छोडकर,,
बढाती इसकी नित खाने हैं।।
इसकी जडें अभी जमी नहीं,
इसका निज से बदलाव करों।
अपनी संस्कृति को दोहराकर,,
भलाई का निज भाव भरों।।
इसका निज से बदलाव करों।
अपनी संस्कृति को दोहराकर,,
भलाई का निज भाव भरों।।
तभी संसार में अकेला भारत
इक नाम लिये बतलायेगा।
रणदेव फिर से विश्व गुरू
रणदेव फिर से विश्व गुरू
बनकर सबकों पाठ पढायेगा।।
रणजीत सिंह “रणदेव” चारण
गांव – मूण्डकोशियाँ,राजसमंद
7300174927