दीपमालिका का दीपक
मानव इस सृष्टि मे ईश्वर की सुंदरतम कृति है और वह अपने विवेक के लिए विश्ववरेण्य है। प्राणिजगत में मानव अन्य प्राणियों से अलग है तो वह अपने विवेकसम्मत व्यवहार के कारण है। विवेक मनुष्य को बुद्धिमान, व्यावहारिक एवं श्रेष्ठ बनाता है। यही कारण है कि मानव ने अन्य प्राणियों की बजाय अपने जीवन को अधिक नियोजित किया है। उसने हर कदम पर अपनी खुशियों का इजहार करने तथा आनंद लेने का प्रावधन भी किया है। हमारे यहां प्रचलित सभी त्योंहार तथा पर्व इसी कड़ी की लड़ियां हैं। होली, दीपावली, दशहरा, ईद इत्यादि सब त्योंहार इसी क्रम में उल्लेखनीय है।
दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति, दीपों की कतार। दीप तथा अवली दो शब्दों से मिलकर दीपावली शब्द बना है। भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों में दीपावली का सामाजिक एवं धार्मिक महत्त्व अधिक है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। हमारी प्राचीन उपनिषदीय प्रार्थना ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ अर्थात अंधकार से ज्योति की ओर जाने की पावन इच्छा इस दीपोत्सव की मूल भवना है। इसे हिंदुओं के साथ-साथ सिख, बौद्ध तथा जैन धर्मावलंबी भी मनाते हैं। यदि परंपराओं तथा भारतीय इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमारें यहां तो मुसलमान भी दीपावली मनाते रहे हैं तथा मनाते हैं। दीपावली मनाने के पीछे कई कथाएं जुड़ी है। हिंदु धर्म में माना जाता है कि अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास काल से आतताई राक्षसों तथा अत्याचारी एवं अहंकारी रावण का समूलोच्छेदन करके लौटे थे। अयोध्यावासियों के लिए यह सबसे बड़ी खुशी का दिन था अतः उन्होंने अपने हृदय सम्राट राजा राम के स्वागत में खुशी का इजहार करने के लिए घी के दीपक जलाए थे। कार्तिक मास की सघन काली रात में इन दीपों की रोशनी से अयोध्या जगमगा उठी और लोगों ने महसूस किया कि न केवल लोगबाग बल्कि स्वयं अयोध्या की प्रकृति भी दीपों के बहाने मुस्कुराकर राजा राम का स्वागत कर रही है।
उस समय से हिंदु धर्म में यह प्रकाश पर्व प्रतिवर्ष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। दीवाली का पर्व सत्य और न्याय की जीत का प्रतीक है। भारतीय सांस्कृतिक विश्वास सत्यमेव जयते यही है कि सत्य की ही जीत होती है, असत्य हमेशा हारता ही है। दीपावली पर सामान्यतया लोग अपने अपने घरों, मंदिरों तथा प्रतिष्ठानों की साफ-सफाई करके अपने भगवान के लिए स्वच्छ तथा पवित्र स्थल सजाकर रखते है। कई दिनों पूर्व ही स्वच्छता अभियान शुरु हो जाते हैं। अतः यह पर्व प्रकाश एवं स्वच्छता का पर्व है। प्रतीक रूप में साफ-सफाई का मतलब है – हमारे समाज तथा सामाजिकों के मन में फैली गंदगी यानी गंदे विचारों, गंदी भावनाओं, कुटिलताओं, धोखाधड़ियों तथा फरेबपरस्तियों का सफाया करना। समाज में फैली अन्याय एवं अत्याचार की काली छाया का सफाया करना।
जरा अपने मन से कभी बात करके देखें कि आखिर इस देश-समाज के लिए मेरा दायित्व क्या है ? और हमारे बुजुर्गों के द्वारा स्थापित परंपराओं, रीतिरिवाजों एवं मान्यताओं का हमारे जीवन से क्या संबंध है? उनके मनाने का औचित्य-अनौचित्य क्या है? क्या हम परंपराओं के नाम पर मात्र अंधविश्वास ही ढो रहे हैं या फिर इनका हमारे जीवन-जगत से कोई जुड़ाव भी है। मेरे प्यारे देशवासियो! समय बहुत ज्यादा विषमताओं तथा संक्रांति वाला है। न केवल हमारे लिए बल्कि संपूर्ण मानव जाति के लिए यह चुनौतियों का युग है। हमारे सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा संस्कृतिक जीवनमूल्य क्या से क्या हो गए हैं। दीपावली तो त्रेतायुग के आदर्श राजा राम, उनके आदर्श परिजन तथा अयोध्या की आदर्श प्रजा की याद में मनाया जाने वाला त्योहार है। याद कीजिए भरत ने राजतिलक करवाने से मना कर दिया था और चौदह वर्ष तक अपने भ्राता राम की खड़ाऊ रखकर राजकाज चलाया।
अपनी माता कैकयी जिसने राम को वनवास दिलाकर भरत को अयोध्या जैसा तख्त दिलाया, भरत ने उसे मातृत्व पद से च्युत कर दिया। न केवल इतना ही बल्कि भरत की मर्मान्तक बातों ने पूरे विश्वमन को ऐसा झकझोरा कि लाखोंलाख वर्ष बीतने के बाद भी कोई परिवार अपने घर की बेटी का नाम कैकयी या उसके कान भरने वाली दासी मंथरा नहीं रखता। कैकयी के इतना करने के बावजूद भी कौशल्या तथा सुमित्रा ने कभी कैकयी से बदसलूकी नहीं की और ना ही राम ने कभी कैकयी के सम्मान में कोई कौताही बरती। इसे ही कहते हैं, जीवनमूल्य। पर आज वे मूल्य कहां? त्रेता के बाद तो हम द्वापर में महाभारत का युद्ध देख चुके। जहां रामायुग में भरत राज्य को लेना नहीं चाहते वहीं महाभारत युग में दुर्योधन सूई की नौंक रखने जितनी जगह अपने भाइयों को देना नहीं चाहते। जहां रामायण काल में एक-दूसरे के प्रति इतना सम्मान का भाव है, वहीं महाभारत युग में अपनी ही कुलवधू के सार्वजनिक चीरहरण जैसा घृणित कृत्य हमें बदलते जीवनमूल्यों की कहानी कहता है। कितना विष भरा होगा दुर्योधन के जहन मेें। खैर ! आज तो यह इस लिए आश्चर्यजनक नहीं क्योंकि घर-घर में दुर्योधन बैठे हैं।
राज हो या समाज सब जगह स्थिति जस की तस है। सोचें नयी पीढ़ी किन आदर्शों को लेकर आगे बढ़े? कुछ सालों पहले का उदाहरण देखें- जिस देश के विदेश मंत्री जैसे महत्त्वपूर्ण पद को विभूषित करने वाले व्यक्ति विदेश में जाकर अपने बजाय किसी दूसरे देश के भाषण को पढ़ देते हैं। इतना ही नहीं देश के लोगों से क्षमायाचना करने की बजाय यह जबाब दिया जाता है कि सब देशों के भाषण एक जैसे ही होते हैं। जरा सोचें इतना गैर जिम्मेदाराना काम करने के बाद इससे भी अधिक गैर जिम्मेदाराना बयान देने वाली हमारी प्रौढ़ पीढ़ी नयी पीढ़ी को किस जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाएगी।
देश में शिक्षा की अनिवार्यता का कानून होते हुए भी अशिक्षितों की भीड़ है, जहां शतप्रतिशत रोजगार की गारंटी के कानून के बावजूद बेरोजगारों का हुजूम है, जहां धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक स्वीकारोक्ति के कानून के उपरान्त धर्म के नाम पर कतलेआम होता है, जहां सामाजिक समरसता के नाम पर लागू किया गया आरक्षण जन-जन की स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन चुका है, जहां संपूर्ण नागरिकों के स्वास्थ्य की गारंटी के बावजूद प्रतिदिन रोगग्रस्त होकर मरने वालों का आंकड़ा सकते में डालने वाला हो और इससे भी आगे जन कल्याण तथा जनता के दुखदर्द में उसका साथ देने वाले विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र भारत में प्रतिदिन भुखमरी तथा कुपोषण के कारण हजारों लोग काल ब्याल के ग्रास हो रहे हैं। तनिक स्वार्थों से प्रेरित होकर अन्याय, अराजकता तथा सांप्रदायिकता का जहर फैलाया जा रहा है। संपूर्ण देशवासी इस दीपावली को दीपक की लौ में आंखें डाल कर विचार करें। संपूर्ण का इसलिए कह रहा हूं कि सभी पंथ तथा संप्रदायों के लोगों द्वारा दीपावली मनाने की हमारे यहां प्राचीन परंपरा रही है और हर एक का अपना अलग-अलग मत और मान्यता है लेकिन इस बात पर सब एकराय हैं कि दीपक अज्ञान एवं अन्याय रूपी अंधकार को मिटाने तथा ज्ञान एवं न्याय रूपी रोशनी को आबाद करने का सशक्त माध्यम है।
यह दीपक तो न्याय तथा ज्ञान का प्रतीक है। अलग-अलग लोगों की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं लेकिन मूल उद्देश्य में कोई मतांतर नहीं है। रामभक्तों के साथ श्रीराम के अयोध्या-आगमन को आधार माना गया वहीं कृष्णभक्तों का मानना है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध करके संसार के सामान्य लोगों को निर्भय किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से लोगों में अपार हर्ष फैला। इस खुशी में लोगों ने घी के दीपक जलाए। एक पौराणिक कथा के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु ने भक्त प्रहलाद की रक्षार्थ नरसिंह अवतार धारण करके अन्याया-अत्याचारी हिरण्यकश्यप का वध किया था। यह भी मान्यता है कि देव तथा दानवों ने मिलकर जो समुद्र मंथन किया उससे निकले चैदह रत्नों में लक्ष्मी तथा धनवंतरी भी निकले थे, ये रत्न भी इसी दिन प्राप्त हुए थे। जैन धर्मावलंबियों की मान्यता है कि उनके चैबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का निर्वाण दिवस दीपावली का दिन है। सिक्खों के यहां एक साथ दो धारणाएं जुड़ी हुई हैं। इसी दिन 1577 में उनके आस्थास्थल स्वर्णमंदिर (अमृतसर) का शिलान्यास हुआ था और 1619 में इसी दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोविंदसिंहजी को जेल से रिहा किया गया था।
भारत के अलावा नेपाल में भी दीवाली धूमधाम से मनाई जाती है। नेपालियों का मानना है कि इस दिन से उनके नेपाली संवत मेें नया वर्ष प्रारंभ होता है। पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म तथा महाप्रयाण दोनों इसी दिन हुआ। उन्होंने दीवाली के दिन गंगाघाट पर स्नान करते हुए हरिओम कहकर समाधि ली थी। आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती, जो कि भारतीय संस्कृति के जननायक थे, उन्होंने भी दीपावली के दिन ही अजमेर के निकट शरीर त्याग किया। इतिहास गवाह है कि दीन-ए-इलाही धर्म के प्रवर्तक सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊंचे बांस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहांगीर भी धूमधाम से दीपावली मनाते थे। मुगलवंश के अंतिम सम्राट बहादुरशाह जफर दीपावली को त्यौंहार रूप में मनाते थे एवं इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय पूरे महल को शाहीदीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिंदु-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।
यह सारी कहानी लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य आपको सूचनाएं मात्र देना या आपकी जानकारियों को बढ़ाना मात्र नहीं है बल्कि मेरा उद्देश्य है वर्तमान समाज में फैली संकीर्ण सोच और जीवन के प्रति बढ़ती निराशा से मुक्ति दिलाना। अरे जिस प्रतीक को हमने न्याय और समृद्धि का द्योतक मानकर अपनाया, उसमें अलगाव की जगह कहां है। दुनिया का ऐसा कौनसा पंथ है जो अन्याय और विपन्नता की पैरवी करता है। ऐसा कोई पंथ नहीं हैं। हां ऐसे लोग प्रत्येक पंथ में मिल जाएंगे जो जाने-अनजाने ऐसे कृत्य कर बैठते हैं। यह दीपक कभी किसी से कोई भेदभाव नहीं करता। राजा के घर पर भी वैसे ही जलता है और रंक के घर भी वैसे ही। न जाति का भेद न ही किसी धर्म या संप्रदाय का। महल हो या झोंपड़ी, सब जगह वह समान रूप से रोशनी फैलाता है। दीपक किसी के साथ धोखा नहीं करता। उसमें जिसने जितना तेल डाला है, उसे उतना उजाला अवश्य ही देता है। दीपक किसी का हक मारता नहीं है।
हम भी दीपावली के पावन अवसर पर दीपक से सीखने की कोशिश करें। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती अतः आपको भी आत्मावलोकन करते हुए स्वानुभूति तथा सहानुभूति दोनों पक्षों को मजबूत बनाना होगा। यही समय की मांग है। समय की मांग को नहीं मानने वालों को पतन के गर्त में जाना पड़ता है-
समय बड़ो सम्राट जगत में, उणसूं लड़णो ओखो।
महाबली अरजुण भी जिणसूं, घोळै दिन रो खायो धोखो।।
रावण, कुंभ, मेघ सा रुळग्या, जगती में ही धाक जकां री।
टकै-टकै मत बेच बावळा, आ जिंदगाणी लाख टकां री।
अतः मेरा सभी धर्मावलंबी भारतीय भाई-बहिनों से विनम्र आग्रह रहेगा कि इस बार दीपावली के दीपक जलाते समय इतना विचार जरूर करें-
मानवीय अंधकार के साये के नीचे दबे तथा सशक्त लोगों के अत्याचारों से आतंकित लोगों के जीवन में उजाला कौन लाएगा ? क्या वे हमारे मानव समाज के अंग नहीं हैं ? क्या दीवाली के एक दिन के दीपक भी उन घरों को नसीब हो पाए हैं, जिनको दो जून की रोटी भी नसीब नहीं है? क्या जिस बाप ने गुण्डों के डंडों व हथकंडों के सामने बेबश होकर अपने बेटे के जीवन, बेटी की इज्जत और खुद की खुद्दारी को दम तोड़ते देखा है, उसे इन दीपों से कोई सांत्वना और सहारा मिल सकेगा ? क्या यह दीवाली उस बूढ़े बाप को न्याय दिला पाएगी? क्या दवाई के अभाव में अपने परिजनों का इलाज नहीं करवा पाने वालों को यह दीवाली कोई दवा-दारू दिलवा सकेंगी? क्या ये दीपक रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार की काली रात का खातमा कर पाएंगे? क्या न्याय की देवी अपनी आंखों की पट्टी उतार कर रिश्वतखोरों को पहचान पाएगी? क्या यह दीपक प्रसवपीड़ा के दर्द से कराहती, बेबस प्रसूता को बिना किसी लोभ के अविलंब देखने की हूंस डाॅक्टर तथा नर्स को दे सकेगा? ऐसे ही अनेकानेक प्रश्न है। यदि इन प्रश्नों के उत्तर इस दीवाली के दीपों से नहीं पूछेे तो यह दीपावली रास नहीं आती है।
सोचो आपके दीपक जलाने का औचित्य क्या है? इस पर विचार करलें। हमारा यह फर्ज है कि अपने घर से अंधकार को निकालने की तजबीज करते समय उधर भी दृष्टिपात करें जिधर व जिन घरों में केवल और केवल अंधेरा ही है। उन घरों से अंधेरा निकालना भी हमारा फर्ज है। अंधकार के विरुद्ध प्रकाश या अन्याय के विरुद्ध न्याय के लिए घी, तेल, मोम या बिजली के दीपक या उजाले के अन्य उपकरण तो हमारे लिए संकेत मात्र है। सच्चा दीपक है, अपने अंदर के अंधकार को मिटाकर उजाला करना। जब तक हमारे अंदर अज्ञानता या कुछेक लोगों के मोहपाश का अंधकार छाया रहेगा, हम दूसरों के जीवन में उजाला कैसे बिखेर सकते हैं। अतः अपने आपको अंधेरे की काली छाया से बाहर निकालकर उजाले से साक्षात्कार करना जरूरी है। आप सबको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। दिवाळी रा रामा-श्यामा। …………..
डाॅ. गजादान चारण “शक्तिसुत”