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हाथ जब थामा उन्होंने, हड़बड़ी जाती रही।
जिंदगी के जोड़ से फिर, गड़बड़ी जाती रही।

‘देख लूंगा मैं सभी को’ हम भी कहते थे कभी,
आज अनुभव आ गया तो, हेंकड़ी जाती रही।

जो दिलों को जोड़ती थी स्नेह बन्धन से सदा,
घात का आघात खाकर, वो कड़ी जाती रही।

क्या पता इन बादलों ने कौनसी धारा पढ़ी,
है न सावन की घटाएं, वो झड़ी जाती रही।

हम वही तुम भी वही, घर गाँव गलियाँ सब वही।
चाह से चौपाल सजती, वो घड़ी जाती रही।

वक्त ने कान्हां के हाथों में मोबाइल दे दिया,
बांसुरी अब है न दिखती, वो छड़ी जाती रही।

फाग में है आग अब भी, राग से दिल रीझता,
किंतु तन के इन परों की, फड़फडी जाती रही।

आ गया क्रिकेट अब, ‘गजराज’ तेरे गाँव में,
गिल्लियाँ-डंडे गए और हरदड़ी जाती रही।

~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”

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