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करुण – बहतरी (द्रोपदी – विनय)

श्री रामनाथजी कविया ने द्रोपदी के चीरहरण को विषय बनाकर ७२ दोहे व् सोरठे लिखे है। जो करुण बहतरी या द्रोपदी विनय के नाम से प्रसिद्ध हैं। कवि का जन्म चोखां का बास (सीकर ) में लगभग १८०८ ई में हुआ। ये बड़े ही प्रतिभावान कवि थे। ये महाराजा विजय सिंह अलवर के दरबारी कवियों में थे, विजय सिंह जी की मृत्य उपरांत उनके पुत्र ने कवि को किसी कारण नाराज़ होकर अलवर के किले में कैद में डाल दिया – इस बंधन काल में श्री रामनाथजी ने अपने हृदय की करुण पुकार को द्रोपदी की विनय के सोरठो द्वारा व्यक्त किया जो करुण बहतरी के नाम से प्रसिद्ध है। पांचाली चीरहरण एक ऐसा आलौकिक प्रसंग है जिससे श्रद्धालु भगवद भक्तों को सदैव प्रेरणा मिलती रही है। कवि ने महाभारत के इस उपाख्यान का आश्रय लेकर अपने हृदय की करुण चीत्कार को वाणी दी।

महाभारतकार ने द्रोपदी की कृष्ण से इस करुण विनय को ५-७ पक्तियों में सिमटा दिया है। इसी विनय के करुण प्रसंग को लेकर श्री रामनाथजी ने अनेक दोहों व सोरठों की रचना की है। सती नारी के आक्रोश की बहुत ही अच्छी व्यंजना इन सोरठों में हुई है। इन सोरठों की भाषा सरल, प्रवाहमयी तथा चोट करने वाली है। द्रोपदी की उक्तियों में कहीं कहीं मर्यादा का आभाव भले ही खटके किन्तु जब भरी सभा में इस प्रकार नारी का अपमान किया जा रहा हो तो नारी हृदय की इस प्रकार की आक्रोशमय अभिव्यक्ति को किसी भी प्रकार अस्वाभाविक नही कहा जा सकता।

दोहा
रामत चोपड़ राज री, है धिक् बार हजार !
धण सूंपी लून्ठा धकै, धरमराज धिक्कार !!
भावर्थ:- द्रोपदी सबसे पहले युधिष्टर को संबोधित करती हुई कहती है. राज री चौपड़ की रमत को हजार बार धिक्कार है। हे धरमराज आप को धिक्कार है जो आप ने अपनी पत्नी को (लून्ठा) यानि जबर्दस्त  शत्रु के समक्ष सोंप दिया।

बेध्यो मछ जिण बार, माण दुजोधन मेटियो!
खिंचे कच उण खार, थां पारथ  बैठयां थकां!!
भावार्थ:- फिर अर्जुन को संबोधित करते हुए कहती है, जिस समय तुमने मत्स्य को बेन्धा था और दुर्योधन के मान को मिटा दिया था तभी से वह खार खाए बैठा था, उसी द्वेष के कारण आज मेरे बाल खींचे जा रहे है. और यह सब तुम्हारे बैठे थकां हो रहा है।

रूठ असी दे रेस, ऊठ महाभड ऊठ अब !
कूट गहै छ केस, दूठ वृकोधर देख रै!!
भावर्थ:- भीम को संबोधित करती हुई द्रोपदी कहती है – हे वृकोदर भीम देख यह कूट दुष्ट मेरे बाल खिंच रहा है. हे महाभट अब उठ और रुष्ट हो कर इस को ऐसी यातना दे की यह याद रखे।

भव तूं जाणे भेव, बेध्यो मछ जिण बार रो !
देव देव सहदेव , बेल कर तो ओ बखत !!
भावार्थ:- संसार में उस मत्स्य वेध के रहस्य को तूं भली भांति जनता है, हे देव देव सहदेव ! अगर सहायता कर सकता है तो यही समय है।

है तूं बाकि एक, कर पाणप धर मूंछ कर !
दूजां सांमो देख, कायर मत होजे नकुल !!
भावर्थ:- हे नकुल मैं और सब पांडवों से प्रार्थना कर चुकी हूँ अब तो तूं अकेला ही बचा है। तूं वीर क्षत्रिय की तरह मूंछो पर हाथ रख कर पराक्रम दिखला। अपने दुसरे भाइयों की देखा देखि तू भी कायर मत हो जाना।

पति गंध्रप हैं पांच, धरता पग धुजै धरा!
आवै लाज नै आंच, धर नख सूं कुचरै धवल!!
भावार्थ:- गन्धर्व तुल्य मेरे पांच पति हैं जिनके पैर रखने से प्रथ्वी भी कांपने लगती किन्तु ये वीर अपने नखों से पृथ्वी को कुरेद रहे है। न इन्हें लज्जा आती है और न (आंच) जोश

पंडव जणिया पांच, जिकण पेट थारो जनम!
जीवत ना आवै लाज, कैरव कच खैंचे करण !!
भावार्थ:- हे- करण जिस माता कुंती के पेट से पांच पांडवों का जनम हुआ है उसी पेट से तुम्हारा जनम हुआ है। ये कोरव द्रोपदी के बाल खैंच रहे है तुम जिन्दे हो तुम्हे लज्जा नही आती।

अण वेहती ह्वे आज, हुई न आगे होण री!
कैरव करे अकाज, आज पितामह इखता!!
भावार्थ:- आज अनहोनी हो रही है, न तो भूतकाल में कभी ऐसी घटना घटी और न भविष्य में घटित होगी। आज पितामह के देखते हुए ये कैरव अकार्य कर रहे है।

धव म्हारा रणधीर, हरण चीर हाथां हुवो!
नाकां छलियों नीर, द्रोण सभासद देख रै!!
भावार्थ:- यधपि मेरे पति रणधीर हैं किन्तु इन्होने इस धूत क्रीडा के कारण अपने हाथों चीर हरण करवाया है। पानी नाक के ऊपर आ गया है। हे- सभासद द्रोणाचार्य आप ही देखो।

मिटसी सह मतिमंद, कलंक न मिटसी भरत कुल!
अंध हिया रा अंध, पूत दुसासन  पाळ रै!!
भावार्थ:- धृतराष्ट्र को संबोधित  करते हुए द्रोपदी कहती है- हे अंध! तुम केवल आँखों के ही अंधे नही, हृदय के भी अंधे हो। हे- मतिमंद सब कुछ नष्ट हो जायेगा परन्तु भरतकुल पर जो यह कलंक लग रहा है वह कभी नही मिटेगा।

सकुनी जीते सार, घण अमृत विष घोलियो!
होणहार री हार, करसी भारत रो कदन!!
भावार्थ:- चोपड़ (सार) के खेल में विजय होकर शकुनी ने घने अमृत में विष घोल दिया। होनहार वश जो पांडवों की हार हो गई है उस से भारत का विनाश हो जायेगा।

लो या बिरियाँ लाख, धर थारी थे ही धणी!
निन्दित कृत हकनाक, कुरुकुल भूसन मत करो !!
भावार्थ:- यह धरती आपकी है, आप ही इस के स्वामी हो! इसे आप लाख बार लो परन्तु हे कुरुकुल भूसन नाहक ही यह निन्दित कृत्ये क्यो होने दे रहे हो।

गरडी गन्धारी, जिण न पुछो जाय नै!
सो कहसी सारीह, कृत अकृत री कैरवा !!
भावार्थ:- वृधा गांधारी है उसे जा कर पूछो वह कौरवों के कार्या कार्य की सब बातें कह देगी।

व्यास बिगड्यो वंस, कैरव निपज्या जेण कुल!
असली व्हेता अंस, सरम न लेता सांवरा!!
भवार्थ:- व्यास ने उस वंस को बिगाड़ दिया जिस में कोरव उत्पन हुए। अगर ये असली मां बाप की सन्तान होते तो हे कृष्ण वे मेरी लाज न लेते।

निलजी कैरव नार, के उभी मुलक्या करो!
अतो कुटम्ब उधार, देणा सो लेणा दुरस!
भावार्थ:- हे निर्लज कैरव नारियो! खड़ी खड़ी क्या मुस्करा रही हो। जो आज तुम मुझे दे रही हो, ठीक वही तुम्हे लेना होगा। यह तो कुटम्ब की उधारी है।

जोवो जेठाणीह, देराणी थे देखल्यो!
होवे लजाहाणी, बीती मो थां बीतसी!!
भावार्थ:- हे जेठानियो व देवरानियो तुम देखलो आज मेरी लजा जा रही है लेकिन याद रखना जो आज मेरे में बीत रही है वो तुम पर भी बीतेगी।

सासू मन्त्र ज साज, पूत जणया पार का!
ज्यां री पारख आज, साँची होगी सांवरा !
भावार्थ:- हे कृष्ण- मेरी सास ने मन्त्र सिद्ध करके जो दूसरों से पुत्र उत्पन किये उन की परीक्षा आज सची साबित हो गई।

जे सासू जणतीह, सुसरा रो एक ही सुतन!
मूंछ्या तणतीह, साड़ी न तणती सांवरा !
भावर्थ:-  हे कृष्ण! अगर सासू ने  स्वसुर से एक भी पुत्र पैदा किया होता तो आज साड़ी नही बल्कि मूंछो पर ताव पड़ता।

पूत सास रै पांच, पांचू ही मनै सूं पिया!
जिण कुल री आ जाँच, सरम कठे रै सांवरा!!
भावार्थ:- मेरी सास के पांच पुत्र और सास ने पांचो को ही मुझे सोंप दिया, जिस कुल की यह जाँच है. हे कृष्ण ! वहां सरम कंहा।

गंगा मछगंधाह , कुण जाई ब्याही कैठे !
धुर कुळ अ धंधाह, सरम कहाँ सूं सांवरा !!
भावार्थ:- गंगा और मत्स्यगंधा को किसने पैदा किया और कहाँ इन का विवाह हुआ। हे कृष्ण जिस कुळ में इस तरह के ढंग है वहां सरम कहाँ से होगी।

कहो पिता हो कोण, मात गरभ कुण मेलियो!
देखै बैठो द्रोण, सो कीं अचरज सांवरा!!
भावार्थ:- कहो द्रोण का पिता कोन था व किस माता ने उसे गरभ में धारण किया था? सो ऐसा द्रोण बैठा देखे तो हे कृष्ण इस में अचरज ही क्या है। (भरद्वाज ऋषी ने एक अप्सरा को गंगास्नान  करते देखा तो उनका शुक्रपात हो गया ऋषी ने शुक्र को द्रोण नामक यज्ञपात्र रख छोड़ा। उसी द्रोण से तेजस्वी पुत्र उत्पन हुआ, उस का नाम द्रोण पड़ा।

भिखम मात आभाव, मात गंग कीकर मने!
सो पखहीण सभाव, सेवट सिटग्यो सांवरा!!
भावार्थ:- भीष्म को माता का आभाव रहा, वह गंगा को माता कैसे माने सो इस पक्षहीन स्वभाव से आखिर कमजोर होना पड़ा है हे सांवरा।

ससुर नही कोई सास, अंध सभा न्रप अंध री !
होणहार उपहास, देखो भिखम द्रोण रो !!
भावार्थ:- अंधे राजा धृतराष्ट्र की यह सभा भी अंधी है। यहाँ न कोई ससुर है न सास। होनहार की बात है की आज भीष्म व द्रोण दोनों का उपहास हो रहा है।

देवकी’र वसुदेव, पख उजल मात पिता !
जिण कुल जनम अजय, सो किम बिसरयो सांवरा !!
भावार्थ:- लेकिन हे कृष्ण ! तुम मुझे कैसे भूल गये? देवकी व् वासुदेव जसे तुम्हारे माता पिता हैं और उस अजय वंश में तुम्हारा हुआ है जिस का पक्ष उज्वल है।

गज ने गहियो ग्राह, तैं सहाय हो तारियो!
बारी मो बैरोह, बैठ्यो व्हे वसुदेवरा !!
भावार्थ:- हे वासुदेव पुत्र ! जब हाथी को ग्राह ने पकड लिया तो तुमने सहायक हो कर उस का उद्धार किया, अब जब मेरी बारी आई तो तुम बहरे क्यों हो गये।

रटीयो हरी गजराज, तज खगेस धायो तठे!
आ कांई देरी आज, करी थैं कान्हड़ा!!
भावार्थ:- जब गजराज ने हरी की रट लगाई तब आप ने अपनी सवारी गरुड की भी प्रतिक्ष नही की और दोड़ कर वहां पहुंच गये। हे कृष्ण आज आप ने यह देरी कैसे करदी।

लारै भगतां लाज, लंका गढ़ रघुपति लड्या!
करण विभिसण काज, सिर दस काट्या सांवरा!!
भावर्थ:- इस के पहले भी भक्तों की लज्जा रखने के लिए लंका के गढ़ में भगवान रामचंद्र ने युद्ध किया था। अपने भक्त विभीषन के कार्य को करने की लिए हे कृष्ण आपने रावण के दस सिर काट डाले थे।

रलियो जल सुरराज, धर अम्बर इक धार सूँ !
करण अभय ब्रज काज, गिरी नख धारयो कान्हड़ा !!
भावार्थ:- जब सुरराज इंद्र ने मुसलाधार वर्षा की उस समय भी हे कृष्ण आपने बृज को अभय करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अंगुली पर उठा लिया।

विप्र सुदामा काज, कोडां धन लायो कठा!
बढ़ण चीर विसतार, सरदा घटगी सांवरा!!
भावार्थ:- विप्र सुदामा के काम के लिए करोड़ों का धन कंहा से लाये। मेरे चीर के विस्तार के समय हे कृष्ण आप की सरदा यानि शक्ति कैसे घट गई।

ब्रज राखी ब्रजराज, इंद्र गाज कर आवियो!
लेवै खल मो लाज, आज उबारो ईसरा !!
भावार्थ:- हे ब्रजराज हे कृष्ण जब इंद्र गर्जना करके आया तो आपने ब्रज की रक्ष की हे इश्वर ये दुष्ट मेरी लज्जा ले रहे हैं आज इन से मुझे उबारो।

जाण किसो अणजाण, तीन लोक तारणतरण!
है द्रोपद री हांण, सरम धरम री सांवरा !!
भावार्थ:- हे सांवरा ! कोन सी जानी हुई चीज तुम से अनजान है? तुम तो तीन लोकों से तारने हो आज जो हो रहा है उसमे तो द्रोपदी की सरम व धर्म दोनों की ही हानी है, हे प्रभु।

अब छोगाला ऊठ, काला तूं प्रतपाल कर!
पांचाली री पूठ, चढ़ रखवाला चतुर्भुज!!
भावार्थ:- हे छोगावाले यानि छुरंगेवाले ऊठ हे कृष्ण (काला) तूं प्रतिपाल कर- रक्षा कर। हे रक्षा करने वाले चतुर्भुज तूं पांचाली की पीठ पर रक्षार्थ आ।

हारया कर हल्लोह, मछ अरजुन बेध्यो मुदे!
दिन उणरो बदलोह, साझे मोसूं सांवरा!!
भावार्थ:- मुदे की बात यह की मछली को अरजुन ने बेंधा था और ये हल्ला गुल्ला कर के भी हार गये हे कृष्ण उस दिन का बदला ये मुझ से साँझ रहे।

आसा तज आयाह, पाछा कोरैव पावणा!
उण दिन रा दायाह, सांझे मोसूं सांवरा!!
भावार्थ:- स्वयंबर के समय ये कोरैव पाहुने आसा छोड़ कर वापस आ गये थे। उस दिन की दाह का वैर मुझ से वसूलना चाह रहे है।

लेवै अबला लाज, सबला हुय बैठा सको!
गरढ्ह सभा पर गाज, सुणता रालो सांवरा !!
भावार्थ:- आप सब सबलों के बैठे (दुष्ट दुसासन) मेरी अबला की लाज ले रहा है। इस गरुड़ (बूढों ) सभा पर हे कृष्ण मेरी पुकार सुनते ही गाज (वज्र ) डाल दो।

द्रोपद हेलो देह, वेगो आ वासुदेवरा!
लाज राख जस लेह, लाज गयां व्रद लाजसी!
भावार्थ:- ये द्रोपदी तुहे पुकार रही हे, हे वासुदेव कृष्ण मेरी लाज की रक्षा करके यश (जस) अर्जित कर यदि लाज चली गयी कुल शर्मिंदा हो जायेगा।

~श्री रामनाथजी कविया

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