“जीऐं बेटीयाँ”
किसी शायर ने पूछ लिया,
सागर से एक दिन।
तूं है बड़ा विशाल,
तेरा दामन भी है गुलशन।।
क्या है वजूद तेरा,
तेरा परिवार क्या क्या ?
मुस्कुराते समंदर ने,
शायर से यूँ कहा।
रजनी है मेरी पत्नी,
मैं हूं उसका पीया।
मेरा बेटा नहीं है कोई,
अनेकों है बेटियाँ।
मेरे दराज विशाल घर की,
रौनक है मछलियाँ।
खेलती है, कूदती,
इनकी हंस-हंस के टोलियां।
मैं जीता हूँ…. जीती रहें,
बस मेरी मछलियाँ।
मेरा जीवन है… जिगर है…,
यह सारी बेटियाँ।
शायर से समंदर ने,
यह भी कह दिया,
तुम भी तो बेटी बाप हो,
किसी पत्नी के हो पीया।
फिर क्यूँ जुल्म ढाह रहें,
जले अबला का जी जिया।
क्या तूनें किसी कोख से,
जन्म नहीं लिया!
प्रमाण कोई बता दें,
किसी वेद पुराण का।
जहाँ लिखा हो यूं,
अपमान नारी का।
फिर हत्याएँ क्यों हो रही,
बेटी की भ्रूण में।
कैसा कातिल कठोर मानव,
नहीं और योंन में।
सुख भी नहीं है इनको,
शादी के बाद भी।
रौदन पुकार चीखें,
जीवन विवाद सी।
आगोश अकाल मृत्यु,
सिमट रही तितलियाँ।
मैं जीता हूँ, जीती रहें…..
खबरदार ओ! दहेज लोभियों,
अब जुल्म ना करो।
तुम तो देव हो चारण,
उल्टे इल्म ना करो।
गर लेना ही है तो ले लो,
धन बेटी के बाप से।
हो न पाये घटना जघन्य,
किसी अबला की ताप से।
तीनों ही महा देवियाँ,
बेटी का रूप है।
ये सरस्वती-काली भी,
लक्ष्मी स्वरूप है।
किसी बेटी का कभी तुम,
अपमान न करो।
मैया के पूत तुम,
संस्कृति का सम्मान तुम करो।
गर रखना है वंश अपना,
त्यागो विचित्र वृत्ति को।
“आहत” की उतार देना ह्रदय,
इस कड़वी कृति को।
खिलेगा चमन, उठेगी महक,
जलेंगी सारी शमनीयां।
मैं जीता हूँ, जीती रहें….
मैं दरिया हूँ, समंदर हूँ,
सागर हूँ नेह का।
देता हूँ प्रेम पूर्ण,
इन्हें चूर्ण स्नेह का।
मैंने पाला है बड़े प्रेम से,
सीने से लगा के।
जगाई है ज्योति दिल में,
सब भय को भगा के।
मुरझाए ना, शरमायें ना,
जीवन में ये कभी।
होगी रजनी सागर की,
पूर्ण कामना तभी।
मानव तूं मेरे साहस को,
भला देख तो लें।
मेरे अपनों के लिए मेरी,
चाहत को देख लें।
तूं तो ज्ञाता है वेद गीता,
सब बातों का हैं भंडार।
तब पाला है क्यों पारस,
ऐसा जो अहंकार।
कहीं उजड़ न जाये,
ये अद्भुत अटरिया।
मैं जीता हूँ, जीती रहें….
क्यों ! घुट-घुट के,
अंधेरों में रोती हैं बेटियाँ।
क्यों ! संकट की शिला लिए,
सोती हैं बेटियाँ।
क्यों ! अश्कों के आभ से,
जख्म धोती हैं बेटियाँ।
जलती हैं आग में,
सबकुछ सहती हैं बेटियाँ।
तब भी बुजदिल नहीं,
व्याकुल नहीं, होती हैं बेटियाँ।
प्रताड़ित चारण समाज से,
होती हैं बेटियाँ।
हमारी ही बेटियाँ…
हमारी ही बेटियाँ…
~आसुदान “आहत”, जयपुर