जीवन – पटकथा
जीवन कोई पटकथा नहीं,
जिसका आरंभ, मध्य, और अंत निश्चित हो,
निश्चित हो किरदार, रस, विराम,
नायक, खलनायक सुनिश्चित हो।
जीवन का मतलब ही है अनिश्चितता,
तुम आरंभ नहीं करते, फिर भी तुम्ही से होता है प्रारम्भ,
तुम अनजाने में चले जाते हो, दौडते, लड़खड़ाते, गिरते, संभलते।
तुम समझे भी नहीं होते कि ये क्या हो रहा है?
समझ आने तक तुम मध्य में पहूंच चुके होते हो ।
मध्य अत्यंत कठिन दौर है, जीवन का,
जो कि तुमने किया ही नहीं था, उस प्रारम्भ का पश्चाताप,
तुम्हें यहां होता है।
जो कि तुम्हारे हाथ में ही नहीं है, उस अंत की फिक्र, तुम्हें यहां होती है।
तुम जब मध्य में होते हो , तब तुम लहरों के मध्य में होते हो।
कोई किनारा नहीं होता, तुम्हारे करीब।
तैरने या डुबने के सिवा, कोई विकल्प नहीं होता, तुम्हारे पास।
तैरने की जिजीविषा ही धर्म है, सत्य है, पुण्य है,
डुबना नामर्दानगी है , पाप है, कायरता है।
कभी कभी लगता है कि तैरने के प्रयास ही “ले-डुबेंगे”।
किंतु यथार्थ यह है कि प्रयास न करने का नाम ही डुबना है।
तुम प्रयास रत रहो, तैरना कोई बाह्य क्रिया नहीं,
इन प्रयासों का जी-जान से होना ही बस है।
तुम्हारे प्रयास ही तय करते हैं, तुम्हारा किनारा।
इन प्रयासों में ही है, रस-भंडार,
यही प्रयास जोडते हैं तुम्हें कुछ सकारात्मक किरदारों से।
इन प्रयासों में सुख दुख नहीं होता,
होते हैं केवल आरोह अवरोह।
और इन प्रयासों में जब तुम विराम लेते हो,
तब अंत नहीं होता, एक पटकथा हो जाती है।
जीवन कोई पटकथा तो नहीं,
फिर भी तुम्हारे जीने के प्रयासों से,
जय जीवन एक पटकथा हो सकता है।
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– कवि : जय।
-जयेशदान गढवी