सठ बेच बजारन हीरन को,
मन मोल कथीर करावत है।
अस के बदले मुढ रासभ ले,
निज भाग अथाग सरावत है।
तड गंग सुचंग सों नीर तजै,
धस कीचड़ अंग पखारत है।
कवि गीध अमोलख मानव जीवन,
झेडर झुंड गमावत है।।
पड़ वाद विवाद में स्वाद लहे,
मरजाद तजै मिनखापण की।
निज को मन मान महान कहै,
परवाह नहीं अपणापण की।
अरूं लोकिक लाज री पाज छडै,
हद पार करै हल़कापण की।
मरणो सत गीध तूं भूल मती,
थिर आस नहीं इस जीवण की।।
किण कारण धारण झूठ करै,
परमेसर नै नहीं भावत है।
सड़ भोग के रोग में मूढ सदा,
पड़ सोग में आव गमावत है।
निज स्वारथ में परमारथ को तज,
पाप अनाप कमावत है।
कवि गीध बहो सतवाट सदा,
छिण ही छिण जीवण जावत है।।
निज सैण को वैण तो साच कहो,
मत सोच करो कड़वापण की।
नित नीत सों प्रीत सदैव रखो रु,
अनीत सों ग्रीव रखो तणकी।
मनमीत पखै बण माधव ज्यों सत,
जूप सों रीत रहो टणकी।
कवि गीध सलामत बोल बता,
थिर देह रही धर पे किणकी।।
अभिमान में रावण वंश मिट्यो,
अभिमान में कंस को मोत मिली।
अभिमान में भूपत कौरव को,
लुक बैठ सरोवर ओट झली।
अभिमान जरासंध भीम गदा,
मरियो तन फाटत पांण तिली।
अभिमान कियो मुगलां निज ताकत,
गीध गमावियो राज दिल्ली।।
गर्व कहो किस बात को मूरख,
है अपणै कर कांई बता?
दिन में जिण ठौड़ हुता हद डेहर,
रात में धोहर होय कता।
मगरूर महीप भए धर ऊपर,
रंक भए पुनि खोय सत्ता।
कवि गीध गरूर तजो अपना,
मनका थिर राखिए हेक मता।।
मन भूंकण चाल बहै हस्ती,
फिर कौन हूं की मस्ती मन में।
इम जँबूक झूठन सिंह भखै,
फिर है वनराज किसे वन में।
सत वायस टोल मराल बसै,
तणियो फिर भूल रहै तन में।
सुलटा मन भूषण शील तजै,
फिर गौरव है किस जीवन में?
~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”