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राजस्थानी रा साहित में मर्यादा रो आछो मंडण, विशेषकर चारण साहित में घणों सखरो अर सोहणो हुयो है। जीवण री गहराई ने समझ परख अर ऊंचाई पर थापित करणे री मर्यादावाँ कायम करी गई है। इण मर्यादा रे पाण ही माणस समाज संगठित अर सुव्यवस्थित रैय र आपरी खिमता अर शक्ति में उतरोतर बढाव करियो है। चारण कवेसरां कदैई नीति रो मारग नी छोडियो है, अर नीतिबिहूणा जीवण ने पाट तोड़ बिगाड़ करण हाऴी नदी रै कूंतै मानियो है, इण भाव रो दोहो निजरां पैश है।

।।दोहा।।
तोड़ नदी मत नीर तूं, जे जऴ खारौ थाय।
पांणी बहसी च्यार दिन, अवगुण जुगां न जाय।

अठां रा कवियां मर्यादा थरपण में थिर कारण रैया है, वीरता अर सिणगार रस में भी कदैई भी मुरजाद रा उदात पख नें नी बिसरिया है। डिंगऴ रा चावा नाम बीकानेर रा पृथ्वीराज राठौड़ भी मरजाद मंडण सखरो कीनो है। आपरी जगचावी रचना “वैली किसन रूकमणी री” में ब्याव सूं पैली देवी-दरशण ने पधारता रूकमणी जी री मन मोवणी गति रो सुन्दर सोवणो बरणाव कवि रा भाव अर आखर देखण जोग है।

।।रूपक।।
सिणगार करे मन कीधउ स्यामा,
देवी तणा देहरा दिसि।
होड छंडि चरणे लागा हंस,
मोती लगि पाणही मिसि।।

सिणगार सझिया रूकमणी जी देवरा धोकण जावतां री सुन्दर चाल ने देख हंस किलोऴ, होड ने छोड़ उणारी पहनियां में जड़िया मोतियां ने चुगणे रै बहायने रूकमणी जी रा पांवां जाय र पड़िया। इण जगै कवि हंसां री मर्यादा निभाय रूकमणी जी री अर बांरी चाल री सुंन्दरता भी बताय हंसा कनै सूं मोती चुगण रे मिस रूकमणी जी री चरण वंदना करवाय दी।

सूर्यमल्लजी मिसण रणखेत बीचे वीर गति पाया थका दोय माँ जाया भाईयां री लाशां हाथी रै कनै किण बिध पड़ी है, मरिया तो ई मुरजाद निभाव करियो, जिण रो जिकर उणां री घर बैठी वीरा-गणांवा कर रैयी है कि।

।।दोहा।।
दैराणी भाभी कहै, हाथी ढाहण हेठ।
पांवां देवर पौढियो, जिणरै होदे जेठ।।

चारण-शक्ति देवल बाईसा मिसण रा पिताश्री आणंद जी मिसण आपो आप मुरजादा री मूरत है अर उणांरै तपबऴ अर मुरजाद रै आपाण ही देवल बाईसा रो अवतार होयो। उंणारी बड़ी मुरजाद रो बरणन “पाबुप्रकास” में कवेसर री बाणी में कि (सरवर री पाऴ उभां आणंदजी ने परम सुन्दरी अपसरा रो मिलणों हुवै जिणमें सहजभाव सूं आदर सेत पुछियो कि……) “हूं तुझ भेद जाणूं नहीं, कह हे तूं बाई कवण” बाई रो बोल सुण अपसरा ने अऴखावणो लागो अर मन में कठमठी अर भाव दरसायो के श्राप उतारण अर आपनै वरण कारण म्हांरो आवण हुयो।

।।दोहा।।
चाह न हुती इण बातरी, मंदमती सुण मुड्ढ।
प्रौढ देख धारण पति, मोमन हुती सु गुड्ढ।।

अपसरा आपरो मन मानस उजागरियो जणै आणंद जी बी रो ब्याव मोटे राजवी धांधऴ जी रै साथै करावण रो भरोसो दिराय मुरजाद निभाय बचन अर कर्म दोनूं उजाऴिया। इणीज अप्सरा रे पेट पाबूजी जैड़ा उज्जवऴ चरित्र-धारी महा मानव अवतरिया। आगे पाबूप्रकास री बानगी जोवण जोग अर जूगां जूनी चालै है।

निडर सधर निरलोभ, वैर जूनां उघरावै।
पारथियां सिध पाल, छते नाकार न छावै।।

बजै गजर जिण बखत, अंग औजौ न आंणै।
कहणी रहणी कमध, पाल मत जोग प्रमाणैं।।

इणीज भांत चारण कवेसरां मर्यादा रो मान राख, साख सरसाय, ईमानदारी अर उजऴापण रो पोखण सदैव कर धरा धाम पर अखी आखर अखियातां चावा हुया है। आज वर्तमान समैं में डिंगऴ रा लिखारा चाहे गद्य रा हो चाहे पद्य रा, मरजादा अर लेखण री लाज रो पखो पुरणता सूं पाऴे है। जद ही जमाने भर पाठक आस भरी निजरां सूं न्हाऴे है।

~राजेंद्रसिंह कविया (संतोषपुरा सीकर)

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