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आज से लगभग अस्सी नब्बे वर्ष पहले एक महान संत जयपुर के आसपास विद्यमान थे, जो गूदड़ीवाले बाबा के नाम से जाने जाते थे। उनका नाम गणेशदासजी था। वह दादूपंथी महात्मा थे। उस समय में जयपुर के प्रसिध्द गणमान्य लोगौं में बाबा की बड़ी मान्यता व स्वीकार्यता थी, तथा बाबा भी बड़े त्यागी-तपस्वी मनीषी थे। उस समय के संस्कृत के उद्भट विद्वान पं.वीरेश्वरजी शास्त्री ने बाबा का स्तवन इस प्रकार किया था:

निर्द्वंन्द्वो निःस्पृहः शान्तो गणेशः साधुतल्लजः
सानन्दः सर्वदा कन्थाकौपीनामात्रसंग्रहः
अर्थातः बाबा गणेशदास कैसे है निर्द्वन्द्व अर्थात ब्रह्मैक्यभाव-प्राप्त, सुख दुःखादि रहित व किसी प्रकार की इच्छामुक्त, शान्त वृति के साधुजनो में परमश्रेष्ठ व ब्रह्मानन्द में मगन रहते हैं व मात्र एक गूदड़ी व लंगोटी ही धारण करते है।

ऐसे वीतरागी, निस्पृह, त्यागमूर्ति महात्मा के जीवन चरित्र को जोगीदानजी कवियासा ने छन्दबध्द कर “त्यागमूर्ति श्रीगणेशदासजी” का सन 1938 में प्रकाशन कराया व पुरोहितजी श्री हरिनारायण शर्मा विद्याभूषण ने इसकी भूमिका लिखी और मंगऴाचरण में दस नाराच छंद श्री हिंगऴाजदानजी कविया जो बाबा के परम भक्त थे ने लिखे जिनमें प्रत्येक छंद में (पंचचामर) है।

इस कविता की विशेषता है कि हर छंदके अन्त में “परम्महंस श्री गुरू गणेश को प्रणाम है” यह मंगऴाचरण गुरु गणेशदास के नाम से है, जो कि आदि देव गणेश का भी वाचक है। इस प्रकार गणेश वंन्दना भी हो जाती है और गणेशदासजी की स्तुति भी, जो बड़ी मधुर व गेय है। इसकी बानगी स्वरूप दो अन्तरे प्रस्तुत हैं।

।।छंद-नाराच।।
विषै विलास वासना न जास चित्त में बसै।
घने बने अमूल्य दास नासिका घसै।।
न राग द्वैष लोभ मोह क्रोध है न काम है।
परम्महँस श्री गुरु गणेश को प्रणाम है।।

समै भविष्य भूत वर्तमान को समान है।
पिछान पिण्ड गूदरी लंगोट दण्ड पान है।।
महान भक्त जक्त तैं विरक्त आठ जाम है।
परम्महँस श्री गुरु गणेश को प्रणाम है।।

करी सतूति रावरी कृपा उतावरी करो।
हरेक विघ्न विघ्नराज राज-काल के हरो।
गरीब हिंगऴाजदान आपको गुलाम है।
परम्महँस श्री गुरु गणेश को प्रणाम है।।

इस मंगऴाचरण के बाद ग्रंथकार जोगीदान जी कविया ने ऐसे ही नौ-पंच चामर छंदो का अपना मंगऴाचरण भी किया है जिसकी अन्तिम झड़ भी अपने बड़े पिताश्री के ही समान दृष्टव्य है। “करो प्रणाम सिध्दराज श्री गणेशदास को” की भी बानगी स्वरूप पाठक वृंद को प्रस्तुत है।

।।छंद-नाराच।।
महान त्यागमूर्ति वे दयालू ध्यानलीन थे।
कभी न इंद्रियोपभोग के रहे अधीन थे।
समान मानते सदा मनुष्य आम खास को।
करो प्रणाम सिद्धराज श्री गणेशदास को।।

लंगोट गूदड़ी सिवाय दण्ड एक हाथ में।
हुआ न अन्य वस्तु का संयौग देह साथ में।
नहीं किया अडोल एक स्थान पै निवास को।
करो प्रणाम सिद्धराज श्री गणेशदास को।।

पदारविन्द की हमें अनन्य भक्ति दीजिए।
अगाध सृष्टि-सिन्धु से जहाज पार कीजिए।
बढाइए दयानिधान बुध्दि के विकास को।
करो प्रणाम सिद्धराज श्री गणेशदास को।।

इस प्रकार इन महान संत को अपनी लेखनी से महिमा-मण्डित कर इन समाज शिरोमणी दोनों बाबा बेटो ने अति पुनीत व पावन कार्य किया है उनको धन्य है व नमन है।

~राजेंद्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर (राज.)

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