कविवर जाडा मेहडू (जड्डा चारण)
कविवर जाडा मेहडू चारणों के मेहडू शाखा के राज्यमान्य कवि थे। उनका वास्तविक नाम आसकरण था। राजस्थान के कतिपय साहित्यकारों ने अपने ग्रंथों में उनका नाम मेंहकरण भी माना है। किंतु उनके वशंधरो ने तथा नवीन अन्वेषण-अनुसंधान के अनुसार आसकरण नाम ही अधिक सही जान पड़ता है।
वे शरीर से भारी भरकम थे और इसी स्थूलकायता के कारण उनका नाम “जाड़ा” प्रचलित हुआ। जाडा के पूर्वजों का आदि निवास स्थान मेहड़वा ग्राम था। यह ग्राम मारवाड़ के पोकरण कस्बे से तीन कोस दक्षिण में उजला, माड़वो तथा लालपुरा के पास अवस्थित है। दीर्धकाल तक मेहड़वा ग्राम में निवास करने के कारण इस शाखा का मेहडू नाम प्रचलित हुआ।
मेहडू चारण प्रारंभ में पारकरा सोढा क्षत्रियों के पोलपात्र थे। जाडा के समकालीन चांगा मेहडू, तथा किसना मेहडू भी अच्छे कवि हुए हैं। जाडा के पूर्वज मेलग मेहडू थे जो मेवाड़ राज्य के बाड़ी ग्राम के निवासी थे। मेलग के वंश में लूणपाल ख्यातिलब्ध कवि हुए जिन्होंने मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा मोकल, जिनको कि ब्राह्मणों ने ईर्ष्यावश चारणों के खिलाफ भ्रमित कर दिया था, को अपनी विद्वता से पुनः चारणों के प्रति आस्थावान बनाया। चारणों की मेहडू शाखा तथा जाडा के पूर्वजों के सम्बन्ध में उपरोक्त बिखरे हुए संदर्भों के अतिरिक्त कोई साधार प्रमाण उपलब्ध नहीं है। और न ही जाडा के माता-पिता, भाई-बहन, बाल्यकाल, शिक्षा-दीक्षा तथा काव्य-गुरु आदि के बाबत निश्चित संकेत सूत्र अधावधि कही प्राप्त है। किंतु यह निर्विवाद है कि वे महाराणा उदयसिंह के पुत्र जगमाल राणावत जहाजपुर के दरबारी कवि थे।
महाराणा उदयसिंह ने अपनी मृत्यु के बाद जगमाल को मेवाड़ का शासक बनाने की इच्छा से वि.स.१६२८ मैं उसे युवराज पद प्रदान किया था। जगमाल उदयसिंह के निधन पर मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा; पर मेवाड़ के प्रभावशाली उमरावो को यह मान्य नहीं हुआ। उन्होंने जगमाल को पदच्युत कर मेवाड़ के वास्तविक हकदार तथा उदयसिंह के वैधानिक उत्तराधिकारी महाराणा प्रतापसिंह को सिहाँसनारुढ किया। इस परिवर्तन व्यवस्था से रूष्ट होकर जगमाल सपरिवार मेवाड़ से प्रस्थान कर जहाजपुर चला गया। जहाजपुर तब शाही अधिकार क्षेत्र में अजमेर प्रान्त के अन्तर्गत था। वंशभास्कर के टीकाकार कृष्णसिंह सोदा के मतानुसार जगमाल मेवाड़ से जहाजपुर जाते समय जाडा को अपने साथ ले गया। तदनंतर वह अजमेर के शाही अधिकारी के पास गया और जहाजपुर का परगना ठेके पर प्राप्त कर जाड़ा को दिल्ली भेजा। जाडा ने दिल्ली जाकर अपनी योग्यता, काव्यशक्ति, तथा नीति कुशलता से नवाब अब्दुलरहीम खानखाना को प्रसन्न कर उसके द्वारा बादशाह अकबर से जगमाल के लिए जहाजपुर वतन के रुप में प्राप्त किया।
नैणसी री ख्यात के अनुसार जगमाल योग्य, वीर तथा प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति था और बादशाह ने मेवाड़ के आन्तरिक विरोध से लाभान्वित होने की आकांक्षा से महाराणा प्रताप से रुष्ट जगमाल के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर जहाजपुर तथा तदन्तर सिरोही राज्य प्रदान किया हो तो अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती।
बादशाह अकबर नीति-निपुण, इतिहास-प्रेमी, साहित्य अनुरागी, संगीत-काव्य कला पारखी एवं ख्याति-लोभी व्यक्ति था। राजस्थानी कवियों के काव्य वर्णनो, ख्यात ग्रंथों तथा अरबी-फारसी आधार स्रोतों से ज्ञात होता है कि वह अरबी, फारसी के काव्य की भांति ही भाषा-काव्य (ब्रज तथा डिंगल) को भी पसंद करता था। चारण कवि कुंभकरण सांदू भदौरा (नागौर) ने अपने प्रसिद्ध काव्य रतनरासो के कविवंश-वर्णन में अपने पितामह माला सांदू के लिए लिखा है कि बादशाह अकबर ने माला से अचलदास तिलोकदास कछवाहा तथा अजमेर के प्रांतपाल दस्तरखान के युद्ध पर रचित छंद सुनकर माला के काव्य की प्रशंसा की और उससे अपनी अहमदाबाद विजय पर काव्य लिखने के लिए कहा। उस समय दरबार में राजा रायसिंह, राजा मानसिंह, राजा उदयसिंह, राजा टोडरमल्ल, राजा बीरबल, तानसेन तथा नवाब रहीम आदि बड़े-बड़े शाही उमराव उपस्थित थे।
राजपूत राजाओं तथा योद्धाओं के अतिरिक्त जाडा मेहडू द्वारा रचित रचनाएं मुगल सम्राट अकबर, नवाब अब्दुर्रहीम खानखाना तथा महावतखां की वीरता उदारता से सम्बन्धित है। नवाब खानखाना वीरता और वदान्यता के साथ-साथ कवि और काव्य-रसिक भी था। मुगल-दरबार व्यवस्था मैं क्या मुसलमान और क्या हिंदू सभी अमीरुल उमरा तथा राजा-रावो को खड़ा रहना पड़ता था। शाही दरबार में मनसब और पद, जो उनकी प्रतिष्ठा तथा वैभव का आधार था, के अनुसार उनके खड़े रहने आदि की नियत व्यवस्था थी। उनके सहारे के लिए सभाग्रह में रेशम के लच्छे (एक किस्म की डोरीयाँ) लटकते रहते थे। थक जाने पर सहारे के लिए वे उन्हें पकड़ लेते थे।
जाडा मेहडू के अकबरी दरबार में सम्मान तथा स्थान प्राप्त करने का उल्लेख बारहठ कृष्णसिंह, मुंशी हरदयाल, मुंशी देवीप्रसाद, कविराज मुरारीदान आसिया, आदि विद्वानों ने किया है। मुंशी हरदयाल ने लिखा है-
…. जाडाजी मेहडू ने बादशाही दरबार में सब कवि लोगों को बैठक दिलाई थी। वह मोटा था। उसको दरबार में खड़े रहने से तकलीफ रहती थी, इसलिए एक दिन वह यह सोरठा पढ़ कर बैठ गया–
पगां न बळ पतसाह, जीभा जस बोला तणो।
अब जस अकबर काह, बैठा बैठा बोलस्यां।।
एक नवाब उसके पास खड़ा था। उसने फौरन हाथ पकड़ कर उठाया और खड़ा कर दिया। मगर बादशाह ने उनको उस दोहे का मतलब समझ कर हुक्म दिया कि चारण आइन्दा दरबार में बैठा करें।
उस समय शाही दरबार में विद्यमान नवाब रहीम खानखाना ने जाडा के काव्य तथा अन्य गुणो की स्लाघा करते हुए कहा-
धर जड्डा अंबर जड्डा, अवर न जड्डा कोय।
जड्डा नाम अल्लाह दा, जड्डा मेहडू जोय।
जड्डा गुण जड्डा बखत, जड्डा नाम कहाय।
सबद न जड्डा ऐकठा, कवि पातळा न थाय।
जाडा कवि होने के अतिरिक्त सभा-चतुर, किया-चित्तूर, विनोदप्रिय, प्रत्युत्पन्नमति तथा साहसी भी थे। अतः गुणग्राही बादशाह ने रहीम का समर्थन पा, उन्हें दरबार में बैठ कर काव्य-पाठ करने की अनुमति प्रदान की।
कवि जाडा का शाही दरबार में प्रवेश उनके प्राप्त काव्य के आधार पर बादशाह की खानजमा अलीकुली तथा बहादुरखां पर सन् १५६७ ई. में विजय तथा जगमाल के वि.सं. १६२८ में मेवाड़ से जहाजपुर जाने के बाद ही किसी समय माना जाना चाहिए। सुपुष्ट प्रमाणों के अभाव में आधिकारिक रुप से यह नहीं कहा जा सकता कि जाडा मेहडू अजमेर के सूबेदार, जगमाल सिसोदिया अथवा खानखाना अब्दुर्रहीम में से किस की सहायता से मुगल दरबार में पहुंचे। परंतु जाडा रचित दोहों से यह तो स्पष्ट प्रमाणित है कि उनका खानखाना रहीम से अच्छा परिचय था। और वे खानखाना से पुरस्कारादि प्राप्त कर लाभान्वित भी हुए थे। नवाब खानखाना के प्रति जाड़ा लिखते हैं:
खानाखान नवाब रो, अम्हा अचंभौ ऐह।
मेर समाणो मोट मन, साढ़ तिहत्थी देह।।
खानाखान नवाब री, आदमगिरी धन्न।
मह ठकुराई मेर-सी, मनी न राई मन्न।।
खानाखान नवाब री, तेग अड़ी भुजदंड।
पूठा ऊपरी चडपुर, धार तले नवखंड।।
खानाखान नवाब ने, वाही तेग वुखाळ।
मुदफर पक्का अंब ज्यू, फेर न लग्यो डाळ।।
खानाखान नवाब रै, खांडे आग खिवंत।
पाणी वाळा प्राजले, त्रणावाळा जीवंत।।
खानाखान नवाब रो, ओ ही वडो सुभाव।
रीझ्या ही सरपाव दै, खीझ्-यां ही सरपाव।।
उपर्युक्त दोहों में खानखाना की वीरता और उदारता का वर्णन है। कवि ने उसकी रीझ और खीझ दोनों ही सीमातीत चित्रित की है। मुजफ्फर संबंधी दोहो से इस एतिहासिक सत्य का भी उद्घाटन होता है कि कवि का वि.स.१६४० तक खानखाना से संबंध बना रहा। खानखाना ने गुजरात के इतिहास प्रसिद्ध सुल्तान मुजफ्फर गुजराती को वि.स.१६४० में पराजित कर श्रीविहीन कर दिया था।
जाडा मेहडू की रचनाओं तथा ख्यातो में प्राप्त अन्य प्रसंगों से यह पाया जाता है कि जाडा मेहडू दत्ताणी के चर्चित युद्ध (वि.स.१६४०) के बाद तक भी जीवित थे। इस युद्ध घटना के पश्चात नवाब खानखाना रहीम, राव केशवदास, भीमोत राठौड़, मानसिंह बागडिया चौहान तथा शार्दूल पवार आदि पर रचित कवि का उपलब्ध काव्य भी इसकी पुष्टि करता है। शार्दूल पवार और भोपत राठौड़ आदि के मध्य मार्गशीर्ष शुक्ला १५ स. १६६३ वि. में युद्ध हुआ था। जिसका जाडा ने सविस्तार वर्णन किया है।
जगमाल ने वि.स.१६३६ में जाडा को अपने जहाजपुर राज्य का सरसिया (सरस्या) ग्राम ‘सासण’ स्वरुप प्रदान किया था। सरसिया जहाजपुर के समीप ही एक छोटी पहाड़ी के नीचे स्थित है। इस समय यह कोई सवा सौ घरों की आबादी का ग्राम है। सरसिया के ताम्ब्रपत्र की प्रतिलिपि की अनुकृति इस प्रकार है–
सधै श्री महाराजाधिराज महाराणा श्रीजगमालजी आदेसातु चारण जाडा न (नूं या नै) गांव १ मोज़े सरस्यो रोपा (गांव का नाम) तीरलो मया कीधो। परगना जाजपुर के आगाहट सांसण कर दीधो। हिंदु न गाय तुरकांणे सूर (सूअर) मुरदार।
आप दतम परदतं मेटेती बीसु धरा।
ते नरा नरकां जायते, जो लग चंद्र देवाकरा।।
संमत १६३६ रा बरखे काती सुदी ५ दली म (में) लख्यो छै।
सरसिया ग्राम की प्राप्ति के बाद जाडा के अपने समसामयिक अन्य प्रसिद्ध कवियों के साथ बीकानेर के महाराजा रायसिंह द्वारा सम्मानित होने का उल्लेख प्राप्त है। बीकानेर के महाराजा रायसिंह और सुरतान देवड़ा सिरोही का वि.स.१६४९ में जैसलमेर के रावल हरराज देवड़ा की पुत्रियों के साथ विवाह हुए। तब महाराजा रायसिंह द्वारा राजपूत परम्परानुसार विवाहोपरांत घोड़े, हाथी, तथा द्रव्य आदी प्राप्तकर्ता कवियों में बारहठ लक्खा, माला सांदू, सांइया झूला, जाडा मेहडू आदि की उपस्थिति का प्रसिद्ध ख्यातकार दयालदास सिंढायच ने निम्नांकित रूप में उल्लेख किया है:-
”महाराजा रायसिंघजी परणीज नै डेरा पधारिया त तठे घोडा दोय सौ।
हाथी ऐक महडू जाडै नूं। हाथी ऐक बारहठ लेखै (लखै) नूं। हाथी ऐक झूले सांइये नूं। हाथी एक देवराज रतनू नूं। हाथी ऐक दूरसै आढे नूं।
°°°°°इणा वगेरै हाथी ५२ दीना।”
जाडा मेहडू के बाल्यकाल, माता-पिता, शिक्षा तथा विवाहादि के विषय में कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। सरसिया में जाडा की कोटडी (मकान) का परकोटा और उसमें स्थित विशाल महल, जो जाडा द्वारा निर्मित कहे जाते हैं; आज जीर्णावस्था में उदासीन खड़े हैं; उनकी भित्तियों की दृढता पलस्तर की घुटाई तथा सुंदरता आदि कला-कार्य निर्माता सुरुचि, कला-प्रेम तथा वैभव सम्पदा की साक्षी देते हैं। वहां वे तीनो महल, काळा महल, धवळा महल तथा कबांणीया महल के नाम से प्रसिद्ध है। काले और धोले महल पलस्तर तथा छत की धवल-श्यामल पट्टीयो के कारण काले-धोले महल कललाते हैं। कबांणियां महल में लकड़ी के मोटे पाठ की कमान लगी हुई है। कदाचित इसलिए उनका काला, धोला और कबांणियां नामकरण हुआ होगा। रावळे (जनाने) की डयोढी के सामने परकोटे के भीतर ही जाडाजी की आराध्य देवी भगवती जोगमाया का एक छोटा-सा सुंदर देवालय बना हुआ है। वह भी जाडाजी द्वारा ही निर्मित माना जाता है। यद्यपि सरसिया में स्थित जाडाजी की वह कोटडी अब जीर्णावस्था में है। और निकट भविष्य में भू-शयन की प्रतीक्षा में हैं, पर कोटडी का अहाता महलों की विशालता, आकृति और चारुता से यह स्पष्ट होता है कि जाडा धन-वैभव तथा साधन-सम्पदा-संपन्न व्यक्ति थे।
सरसिया ग्राम में निवासित जाडा के वंशजों से प्राप्त वंशवृक्ष तथा मौखिक परिचित तथा समसामयिक स्फुट काव्य-स्रोतों के अनुसार जाडा के तीन पुत्र और एक पुत्री थे। जिनके कल्याणदास, रूपसी, मोहनदास तथा कीका (कीकावती) नाम थे। कीकावती का विवाह ख्यातिलब्ध बारहठ लक्खा नांदणोत के साथ हुआ था। प्रसिद्ध महाकाव्य ‘अवतार चरित्र’ का प्रणेता, महाराणा राजसिंह मेवाड़ का काव्य गुरु तथा महाराजा मानसिंह जोधपुर का श्रद्धाभाजन नरहरिदास बारहठ और उसका अनुज गिरधरदास जाडा के दोहिते थे। महाकवि सूर्यमल्ल के अनुसार चारणों में नरहरिदास जैसा विदुष भाषा कवि अन्य कोई चारण नहीं हुआ। गिरधरदास भी चारण समाज में अग्रगण्य तथा वीर-प्रकृति का उदार व्यक्ति था। जाडा-तनया कीकावती बड़ी भगवद्भक्त दयालु चित एवं परोपकार वृत्ति की उदार ह्रदय नारी रत्न थी। कीकावती की परदु:खकातरता, परोपकारिता, दयालुता, विदुषिता व भक्ति-निष्ठा के सम्बंध में एक छप्पय उदधृत है~
सत सीता सारखी, तप विधि कूंत तवंती।
कुळ धर्मह कामणी, धीय हरि ध्यान धरंती।।
पति भर्ता पदमणी, संत जेही सरसन्ती।
हंस वधू परि हालि, बोध निरमळ भूझंती।।
लखधीर लच्छि ‘जाडा’ सधू, सुजस जगि सोभावती।
गंभीर मात गंगा जिसी, वेय वाचि कीकावती।।
जाडा के तीनों पुत्रों में ज्येष्ठ कल्याणदास अपने समवर्ती चारण कवियों में अति सम्मानित, राज्यसभा-समितियों में प्रतिष्ठित तथा श्रेण्य कवि था। कल्याणदास को जोधपुर के महाराजा गजसिंह राठौड़ ने १६२३ तथा १६६४ वि. में क्रमश: एक लाख पसाव व एक हाथी प्रदान किया था। अब तक की अनुसंधान-अन्वेषण में कल्याणदास के राजस्थान के शासकों तथा योद्धाओं पर सर्जित कोई १२ वीरगीत ८ छप्पय और बूंदी राज्य के प्रतापी शासक राव रतन हाडा के युद्धों पर रचित ‘राव रतन हाडा री वेली’ खण्ड काव्य प्राप्त है। राव रतन हाडा री वेली जहां कोटा-बूंदी के हाडा शासकों के इतिहास के लिए महत्व की कृति है। वहां राजस्थानी वीर काव्य परंपरा की भी पाक्तीय रचना है। राजस्थानी के वेलिया गीत छंद में रचित यह डिंगल की उत्कृष्ट रचना है। रूपसी और मोहनदास का कविरूप में कहीं कोई परिचय अधावधि अनुपलब्ध है। मोहनदास के पुत्र बल्लू मेहडू के गीत, कवित्त, दोहे आदि स्फुट छंद गुटको में यंत्रतंत्र मिलते हैं। वह बूंदी के रावराजा शत्रुशाल, महाराजा अजीतसिंह जोधपुर महाराजा सवाई जयसिंह कछवाहा आदि का समकालीन था। रावराजा शत्रुशाल ने उसे बूंदी का ठीकरिया गांव प्रदान किया था।
राजस्थान में जाडा की संतति जाडावत मेहडू कहलाते हैं। जाड़ावतो के सरसिया, खेड़ी, संचेई, देवलदी, कचनारा, हमजाखेड़ी, मऊ, खेजड़ला, ठीकरिया, लीलेड़ा, जैतल्या, देवरी, सोडावास, राजोला तथा चापड़स इत्यादि अनेक गांव है। जाड़ावतो में कल्याणदास, बल्लू, बिहारीदास (राव अखेराज देवड़ा सिरोही का समकालीन), हररूप, कृपाराम (राजा उम्मेदसिंह शाहपुर का आश्चित), मेघराज (राजाधिराज लक्ष्मणसिंह शाहपुर का कृपा पात्र), महादान (महाराणा भीमसिंह तथा महाराजा मानसिंह से सम्मानित), भीमदान (राजा सुजानसिंह शाहपुर का आश्चित) तथा गोपालदान देवरी आदि कतिपय पर विशिष्ट कोटि के कवि हुए हैं। जाडा मेहडू का काव्य-सर्जन-काल निर्धारित करने के लिए उनकी रचनाएं ही अधावधि एक मात्र आधार है।
जाडा मेहडू रचित अधावधि उपलब्ध काव्य ऐतिहासिक पुरुषो अथवा ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बध्द है। और, रचनाओं के नायक एवं घटना प्रसंग भी कवि के अपने समकालीन है। अतएव, जाडा रचित काव्य को इतिहास की निकष पर परखने से अधिकांश रचनाओं का रचनाकाल वि.स.१६२४ से १६७१ वि. के मध्य निर्धारित किया जा सकता है। वि.स.१६२४ में मुगल सम्राट अकबर और मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के मध्य चित्तौड़ का विख्यात युद्ध हुआ था। चित्तौड़ के उल्लेखित युद्ध में राजस्थान के प्रसिद्ध वीर राव जयमल्ल मेड़तिया, रावत पत्ता चूड़ावत, ठाकुर इसरदास मेड़तिया, ठाकुर प्रतापसिंह मेड़तिया, वीर कल्ला राठौड़ रनेला, आदि अनेकानेक योद्धा मारे गए थे। तदनन्तर महाराणा उदयसिंह के अवशेष जीवनकाल, महाराणा प्रतापसिंह के समय शासनकाल और महाराणा अमरसिंह के शासन वर्ष १६७१ वि. तक वह दिल्ली-मेवाड़ का पारस्परिक संघर्ष अनवरत-सा चलता रहा। अंततोगत्वा महाराणा अमरसिंह के अन्तिम काल में वि. स् १६७१ वि. में बादशाह जहांगीर और अमरसिंह के मध्य संधि होने पर ही मेवाड़ की भूमी पर तीन पीढियो से प्रचलित वह युद्ध कुछ काल के लिए समाप्त हुआ था।
कवि जाडा ने पूर्वोल्लेखित तीनों महाराणाओं, उनके सामंत सहयोगीयों, समकालीन योद्धाओं व तद् कालावधि की युद्ध-घटनाओं पर वीर गीत, छप्पय तथा अन्य छंद रचे हैं। अतः रचना नायकों तथा वर्णन-विषयों के आधार पर कवि का काव्य सर्जनकाल वि.स.१६२४ – १६७२ वि. तक स्थिर किया जा सकता है। तदनुपरांत कवि रचित काव्य उपलब्ध नहीं हुआ है। इससे प्राप्त आधारों पर यह अनुमान किया जा सकता है कि स्. १६७१ – ७२ वि. के पश्चात ही कवि का किसी समय निधन हो गया होगा?
कविवर जाडा मेहडू मूलत: वीररस के कवि हैं और उन्होंने अपने काव्य में वीर भावों की संवाहक ओजमयी डिंगल भाषा की शब्दावली का प्रयोग किया है। डिंगल के साथ-साथ जाडा ने तत्सम, अर्ध्द तत्सम, तद्भव, देशज और अरबी फारसी के शब्द से भरपूर भाषा का भी पुष्कल प्रयोग किया है। इससे जहां भाषा में ओज-आभा बढ़ी है वहां भाव-संप्रेषणता में भी पर्याप्त तीव्रता आई है। जाडा राज्याश्रित राजदरबारी कवि थे। अतः तत्कालीन शासक समाज, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक प्रवृतियों आदि का उन्हें पर्याप्त ज्ञान तथा अनुभव था। मुगल संस्कृति और हिंदू संस्कृति के उस सम्मिलन काल में अरबी फारसी शब्दावली से कवि का परिचित होना आवश्यक भी था। तब केंन्द्रीय स्तर पर फारसी भाषा का आम प्रयोग प्रचलित था। कवि का शब्द-भण्डार कर्पूर है तथा वह यथा स्थान, यथा प्रसंग भावानुकूल शब्दावली का प्रयोग करने में प्रवीण है।
यद्यपि जाडा कृत यह काव्य इतिहास की परिधि में आबद्ध काव्य है। कवि की दृष्टि सीधी अपने काव्य नायकों की वीरता, साहस, शौर्य तथा वदान्यता का प्रशस्ति आख्यान करने पर रही हैं; तब भी वर्णन में जहाँ भी उपयुक्त अवसर मिला कवि ने वहाँ मुहावरे, कहावतें, तथा लोकरुढियो के प्रयोग किए हैं। इससे भाषा वैचित्र्य तथा भाव वैचित्र्य में बद्धि हुई है।
वीर संस्कृति का उद्गाता कवि जाडा राजस्थानी लोक संस्कृति लोक विश्वास तथा धर्म-विश्वास के प्रति भी पूर्ण आस्थावान है। उसने राजस्थानी लोक संस्कृति और धर्म-विश्वास को व्यक्त करते हुए कहा है– ‘श्रोण तणा पिण्ड पितरां सारे’ पितृगण को श्रोण का पिण्ड दान किया है। लोक मान्यता है कि युद्ध की अन्तिम वेला में योद्धा अपने रक्त का पितृजन को दर्पण देता है, उससे पितृजन प्रसन्न होते हैं और पिण्डदाता पितृऋण से मुक्त हो जाता है।
‘किरि सनान गंगा कियो’ भारतीय जन के विश्वास के अनुसार गंगा स्नान मोक्ष प्रदाता माना जाता है। इससे प्राणी आवागमन मुक्त हो जाता है। जयमल्ल के वर्णन में कवि ने ‘मुगति लीजै माल’ कह कर धार्मिक आस्था प्रकट की है।
कवि द्वारा राजस्थानी लोक-रंजक दण्डक नृत्य तथा घूमर आदि के वर्णन से स्पष्ट होता है कि वह लोक-संस्कृत का प्रेमी तथा उसमें रंगा-रमा व्यक्ति था। होलिकोत्सव पर खेले जाने वाले लोक नृत्य ‘डांडिया’ का उल्लेख करते हुए कहा है–
१. खेलै जाणि डंडेहडि खेला।
२. घेर घूमरि घतये।
मध्यकाल में मेवाड़ को छोड़कर प्रायः राजस्थान के अधिकांश शासक शाही सेवा अंगीकार कर चुके थे। जन-मानस को यह पराधीनता अरुचिपूर्ण लगी। कवि जाडा ने जन-भावना को अभिव्यक्त करते हुए कहा है–
थान र्भसट कांइ चाकर थीये, भिडि संग्रहां क फ़ौजा भंजि।
इस प्रकार वह अपने समय का एक जागृत व्यक्ति भी था। राजदरबारों की गहमह के चाकचिक्य में भी वह जन-भावनाओं का प्रत्यक्ष दृष्टा रहा।
“शार्दूल पवार रो छंद” कृति में कवि ने संस्कृत-प्राकृत हिंदी और राजस्थानी भाषा के छंदों का प्रयोग किया है। संस्कृत के भुजंगी, आर्या, हिंदी के दोहा, सोरठा, छप्पय (जिसे कवि ने कवित्त कहां है) बेअक्षरी, सारसी तथा राजस्थानी के गीत छन्दों का प्रयोग किया है। गीतों में कवि को सपंखरो तथा साणोर अधिक प्रिय रहे हैं। राव शार्दूल पवार के छंदों के अतिरिक्त कवि रचित अधिकाश छंद गीत, कवित तथा दोहे- सोरठे है। यह सब स्फुट रचनाऐ है। शार्दूल पवार रो छंद एक खण्ड काव्य कृति है। इसमें कुल ११२ छंद हैं।
शार्दुल पवार के छंदों में कवि ने मंगलाचरण में भगवान पदमनाभ, गणपति और सरस्वती की वंदना कर काव्यनायक रावत शार्दुल पंवार के यस-वर्णन की घोषणा की है। वह उसकी वीराकृति का वर्णन करता हुआ उसे दोनों भुजाओ से कवचित, समरांगण में प्रतिपक्षी के सम्मुख अविचल तथा उसके द्वारा अन अवरुद्ध, आक्रमण वेला में वराह पर सिंह के तुल्य सरोष आक्रमण, किसी अन्यका न अवरोध सहने वाला तथा न बंधन मानने वाला चित्रित करता है–
उभै बांह सन्नाह सांमी अपल्लो।
कड़ख्खे जिसै सीह दीसै कविल्लो।।
सदा जोध अलोधवै सूर सती।
कहां तास सादुल पंमार किती।।
कवि ने रावत शार्दुल के पितामह वीरवर रावत पंचायन के क्षत्रियो के तीर्थ चित्तौड़गढ़ की रक्षार्थ यवनो से लड़े गए असि संघात में जूझ मरने का डिंगल की सशक्त शब्दावली में वर्णन किया है। यहां वीररस के साथ साथ वीभत्स का भी सुंदर परिपाक हो गया है–
लौथा बेहड़ तेहड़ लोथी।
बत्थां लूथ हुआ गळबत्थी।।
मुंहडै खांडि थयो जुधमल्ला।
ढहि ढेचाळ पड़े ढिग ढल्ला।।
धड़ धड़ त्रुटते मुंहि धारां।
पुहप वरसीया सीसि पंमारा।।
पांचा खांडि तणे मुंहि पड़ीया।
चांमरीयाळ चीत्रगढ़ चडीया।।
चरित्रनायक रावत शार्दूल का पिता रावत मालदेव दुघर्षवीर था। चित्तौड़ के तृतीय साके में उसने मुगल वाहिनी से लोहा लेकर चित्तौड़ की गौरव – रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति दी थी।
बाण कमांण भांजि बहांबळ।
सिधुर भागा भांजे साबळ।।
ताईया सिरे असिमर त्रुटा।
खांडि खांडि राउत पळ खुटा।।
दळ धन धन राउतांडु आढां।
दुसहां अरि भागी जमदाढां।।
तीर धनख तरकस तुट्टे।
जुधि मुंगल तरकस बंध जुट्टे।।
इस प्रकार वातावरण को साकार रूप प्रदान करते हुए कवि ने ओज प्रभाव युक्त शब्द – चयन किया है। अभीष्ट वर्णन के उपयुक्त कवि का शब्द चयन और भावग्रहिता विषय के अनुरूप है।
रावत मालदेव के छः पुत्रों में रावत शार्दुल और संग्राम ने शाही सेवा में पदार्पण किया। बादशाह ने उसे बदनोर का पट्टा प्रदान किया। राठौड़ों को रावत शार्दूल का बदनोर प्राप्त करना अप्रिय लगा। तब जेतारण के स्वामी भोपत के नेतृत्व में जैतारण, मेड़ता तथा जोधपुर की संयुक्त राठौड़ सक्ति ने शार्दुल पर आक्रमण किया। कवि ने प्रतिपक्षी सेना की सबलता, दुर्दमनीयता का ह्रदयग्राही वर्णन करते हुए कहा है–
बड़ा जोध जोधपुरा खेति वंका।
निहसै वळे मेड़तीया निसंका।।
सबे साथ दूदा असग्गा सवाया।
इसा थाट सादूळ सिरी चल्लि आया।।
महा सूर धीरं वळीकंध मल्लं।
अगे चालता कोट दीसै अपल्ल।।
विढेवा तणा मग्ग जोश्रे विमाया।
इसा थाट सादूळ सिरि चल्लि आया।।
नवां कोट नाइक्क निभै नरिद।
बड़ा विरद झल्लाज वांकिम विदं।।
अरीकाळ जमजाळ जगे अघाया।
इसा थाट सादूळ सिरी चल्लि आया।।
अनिमंत्रित उन अरि-अतिथियों का अचानक आगमन सुन; भला शार्दुल उनका स्वागत कैसे नहीं करता ! वह शत्रुओं का आगमन समाचार सुनकर उत्साह से भर गया। उल्लास से उल्लसित उसकी मूंछे ऊपर तन गई और अक्षो में अरुणता छा गई। कवि ने शार्दूल के उस समय की मुखाकृति का फबता हुआ चित्राकन किया–
सादूळो ऊसस्सियौ, संभळीये ववणेह।
मूंछ ऊरधे वळ चढो, रग चडिया नयणेह।।
यो कवि ने युद्ध नायक शार्दुल और प्रति नायक भोपत की युद्ध कीड़ा का वीर काव्य वर्णन परम्परा के अनुकूल ओजस्वी भाषा में चित्राकन किया है। वीररस से ओतप्रोत इस लघु काव्य कृति के अन्त में युद्ध प्रेमी परभक्षी ग्रध्द वराकांक्षिणी सुर सुन्दरियां, मुण्डमाला प्रेमी मुण्डमाली तथा वीर वैतालों की अभिलषित कामना-पूर्ति कर वर्णन को सम्पन्न किया है–
पळचार पळ डळ मिले प्रघल वियाळा जुत्थऐ।
अछरा वर वरि सूर समहरि मत्र रलिया तत्थऐ।।
वीरं वैताळ रद्रजाळ रुण्डमाळ रज्जऐ।
कमधां पंमारां खग्ग-धरा भड़ ऊधारां भज्जऐ।।
स्फुट रचनाओं में कवि ने अपने समसामयिक योद्धाओं के युद्ध भियानो, वीर प्रतिज्ञाओं, युद्ध-कीड़ाओ, योद्धा-परंपराओं, कुल गोरव-रक्षा प्रयासों, स्वातंत्र्य-भावनाओं तथा वीर वृतियों का गीतों, छप्पयों तथा दोहों में गुम्फन किया है। बादशाह अकबर के रणथंभोर दुर्ग विजय को लक्ष्य कर कवि ने दुर्ग द्वारा कहलवाया है कि यदि चित्तौड़ के रक्षक राव जयमल जैसा कोई योद्धा दुर्ग-रक्षक होता तो शाही सेना विजय प्राप्त न कर पाती और युद्ध-प्रेमी देवों को रण-कोतुक दर्शन, अप्सराओं को सुवर तथा महादेव को मुण्डमाला प्राप्ति-प्रसंता लाभ होता–
अमर खेल अपछर सुवर ईस दे आभरण
पुणे इम दुरंग रणथंभ अणपाल।
श्राईयां दले अकबर धणी सांपनो,
मुझ जो सांपत धणी जैमाल।।
कवि को रणथंभौर बिना युद्ध बादशाह के सुपुर्द करना क्षात्रधर्म परम्परा के विरुद्ध लगा। उसने दुर्गपाल राव सुरजन हाडा की सीधी खुली भर्त्सना न कर दुर्ग के मुख से ही दुर्गपाल के दुर्ग समर्पण कृत्य की चातुर्य के साथ निन्दा करवाई हैं। यहां कवि का वर्णन-कौशल चातुर्य प्रकट होता है।
यद्यपि शाहंशाह अकबर ने अपनी प्रचण्ड वाहिनी के बल से चित्तौड़ दुर्ग को विजय तो कर लिया, पर वह चित्तौड़ के ‘अनड़’ स्वामी महाराणा उदयसिंह को अवनत नहीं कर सका। कवि ने उदयसिंह की स्वाधीन-भावना की श्लाधा करते हुए कहां है कि अकबर रूपी कपि ने उदयसिंह रूपी आकाश का स्पर्श करने के लिए बहुविध प्रयत्न किए पर वह उसका स्पर्श नहीं कर सका–
बह झंप सजे बह करे कटक बळ,
नमणि कराबण तणे नियाइ।
वानर असुर उदैसिघ व्रहां ड,
तलपी न पूगा तो लग ताई।।
कवि को रणथंभोर पराजय तथा राव सुरजन का शाही सेना के सम्मुख समपर्ण अनुचित तथा योद्धा-धर्म विरुद्ध कार्य लगा। महाराणा उदयसिंह की स्वाधीन भावना से उसे प्रिय लगी। महाराणा प्रतापसिंह की स्वातंत्र्य-साधना का स्वागत करते हुए उसने युद्ध-कार्यों का समर्थन किया है। और न्याय तथा नीति सम्मत बखानते हुए यह भी कहा है कि भूमि सदैव युद्ध द्वारा ही प्राप्त होती है। ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ से कवि पूर्णरूपेण परिचित हैं–
नाग बंगाळ असंख नीजामें,
श्रेणि ध्रवी खत्रवट सहाई।
असिवर तणी इळा उदावत,
आवी अगैस श्रेणि उपाई।।
वह बादशाह अकबर द्वारा राजपूत आन-मान को कपट-चातुर्य तथा नीति कुशलता से नष्ट करने की नीति को जानता है। इसलिए महाराणा प्रतापसिंह के क्षत्रियत्व, धर्म-भावना और स्वातत्र्य प्रेम की सराहना करते हुए यवनो की सेवा करने वाले क्षात्र-मर्यादा से विमुख अन्यान्य नरेशों को स्पष्ट कहता है–
लख जूटे मीर स खुटै लोहे,
लख द्रव्य कोड़ी भंडारां लाइ।
अकबर वरतन दियो ऊँवरां,
पातल राण तणे पसाइ।।
कवि के सम्मुख प्रतापसिंह ही स्वतंत्रता का ऐकाकी जागरुक प्रहरी है। केवल उसी की तेग के प्रताप से शहंशाह पीड़ित है–
हेक ताई कुलवाट हालै,
भिड़ण बांधे नेत भाले।
साह अकबर हीये सालै,
तुझ तेग प्रताप।।
इस प्रकार महाराणा प्रतापसिंह की खडग-बल से अर्जित सम्पत्ति और सुयश की देवगण द्वारा सवीस्मय सराहना की जाती है–
उत्तिम मधिम देवराज ऊपरि,
कै घट राखै रमै कळा।
धार खड़ग वे मयंक कळोधर,
किति अनै चलवी कमळा।।
कवि के मुक्तक गीतों में स्वतंत्रता की भाव धारा पग पग पर प्रबल प्रवाह के साथ बहती लक्षित होती हैं। शाही अधीनता-रत राजस्थान के शासकों की कुल गोरव-च्युति तथा धर्म-विमुखता की कटु आलोचना कवि महाराणा अमरसिंह द्वारा भी करवाता है–
राण रूप पयपै रांणो,
रुख त्रय साह सरिस मनरंजि।
थान भ्रसट काइ चाकर थीयै,
भिड़ी संग्रहा क फौजां भंजि।।
कवि जाडा मेहडू के हृदय में यह सतत चुभता प्रतीत होता है कि राजस्थान के शासकों ने मेवाड़ के शासकों के विरोध पराधीनता का पंथ क्यों स्वीकार किया। इसलिए महाराणा अमरसिंह की स्वाधीनता के प्रति अडिग भावना कवि की भाषा में अभिव्यक्त है–
डगमगे किम वाय डूंगर,
किम द्रुनासै तेज दिनंकर।
पित जे रांण सरण विज पिजर,
अकबर सरिस मिले किम अंमर।।
जाडा मेहडू के मुक्तक काव्य में स्वतंत्रा की पवित्र भावना का ओजस्वी स्वर गूंजता मिलता है। अकबर के दरबार में सम्मान प्राप्त कवि महाराणा प्रतापसिंह तथा महाराणा अमरसिंह के प्रतिद्वन्द्वी जगमाल का राज्यश्रित कवि जाडा निर्भीकतापूर्वक महाराणाओं के स्वतंत्रता-संघर्षो की सराहना करता है। इस प्रकार कवि जाडा की स्वतंत्रता-भावना, युग दृष्टि, सत्यभाषिता, मातृभूमि-भक्ति, अति निर्भीकता तथा साहस इत्यादि चारित्रिक विशेषताओं का बोध होता है।
राजस्थानी (डिंगल) काव्यो में वयण सगाई (शब्द मैत्री) और अनुप्रासादिक अलंकारों की भरमार है। वयणसगाई अलंकार तो डिंगल काव्य की अन्यतम विशेषता है। कविवर जाडा के काव्य में वयण-सगाई के समस्त प्रकारों के अनायास प्रयोग सहज रुप में प्राप्त हैं। किसी भी छंद, द्वाले तथा पक्ति को उठाकर देख लीजिए सर्वत्र वयण-सगाई मिल जाएगी। वयण-सगाई का एक उदाहरण उदधृत है–
नवांकोट नाईक्क निभे नरिदं।
वडा विरद झल्लाज वाकिम विद।।
शब्दालांकारों में अनुप्रास के वृत्यनुप्रास, श्रुत्यनुप्रास, लाटानुप्रास, छेकानुप्रास, सर्वान्त्यानुप्रास आदि समस्त रूपों तथा यमक, पुनरुक्तवदाभास और श्लेषादि का प्रयोग जाडा ने किया है। यहां कुछ उदाहरण अवलोक्य हैं–
वृत्यनुप्रास
मछरि वंस खटतीस मांहे।
सूरधीर सग्राम साहे।।
गयद गोरी गूडि गाहे।
मुगति लीजे माल।।
..
कले मुगल कर लेह कटारी।
मारियो मुगल कटार मल।।
श्रुत्यनुप्रास
धन जत सत बळ सामिध्रम अमर नमन विथिये इम।
लाटानुप्रास
वाळण वैर धणी घर वाळण।
छेकानुप्रास
फरि फरि फ़ौज फ़ौज फुरळता।।
अन्त्यानुप्रास
दड़के दमंमां गंम गंमा संम समां सद्द्ए।
..
रणतूर रुड़ीयं गयंद गुड़ीयं गयण उड़ीयं गज्ज।।
यमक
सादूळी सादूला सहज्जे सहामें।
..
उदार आपि जीमो अभंगघणी,
लाज वप जूझ घण।।
पुनरुक्तवदाभास
जोगणि विणा कुण सकति दांणाव जड़े।
..
पिड़ि मालौ धमचालि पइठ्ठो।।
अर्थालंकार
काव्य में अर्थ द्वारा सौंदर्य चमत्कार- प्रकाशन अर्थालंकार कहलाते हैं। अर्थालंकारों में काव्य-सौंदर्य का आधार शब्द न होकर अर्थ होता है। कवि जाडा मेहडू अर्थालंकारो का भी विदग्ध-प्रयोगक्ता है। अर्थालंकारों में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, ध्वन्यर्थ-व्यंजन, विरोधाभास मानवीकरणा, स्वभावोक्ति, श्लेष आदि के भरपूर प्रयोग प्राप्त होते हैं। अर्थालंकारों में भी रूपक कवि का ‘मन भावना’ अलंकार है। रूपक के सांगरूपक, निरंकरूपक, तथा परम्परित रूपक तीनों भेदों में कवि को सावयव रूपक अधिक प्रिय है। कवि जाडा मेहडू ने अपने रुपको में कछवाहा वीर राजा रामदास को गोरक्षनाथ, योगीराज, महाराणा उदयसिंह को उत्तुग आकाश, रावत दुर्गभान चंद्रावत को गरुड़, मानसिंह चौहान को वाराह तथा राजकुमार दूदा हाडा को अगस्त्यमुनि के रूप में वर्णित किया है। इनमें कवि ने युद्ध नायकों को क्रमश: गोरक्षनाथ, योगीराज, आकाश, गुरुड़, वाराह एवं अगस्त्यमुनी तथा प्रति नायको को सर्प, प्रलंब, नाग, सिंह समुद्र आदि चित्रित किये हैं। यहां सांगरुपक के दो उदाहरण दर्शनीय हैं
पयाताळ गिर श्रग तिमरक दर कुदरन्ती,
किसन चील हबसी छत्रपती फणापती।
नाळी धाड़ फुंकार कोट कुंडळी प्रवेश।
गरळ झाळ आतस्स डसण गोळा संपेस।।
धन जत सत्त बळ समिध्रम अमर नमन विथियै इम।
साझीयौ विमर आसेरगढ़ रांमदासि गोरख्ख जिम।।
..
बह झंप सजे बह करे कटक बळ,
नमणि करावण तणे नियाइ।
वानर असुर उदेसिघ ब्रहमड,
तलपि न पूगा तोलग ताइ।।
फाळ फ़ौज घण मंडे फारक,
हठि सम चढ़े मनावण हीर।
मछर तुझ आंबर मेंवाड़ा,
मुगटि न पूगा अकबर मीर।।
आफलि तरस सेन बह आणे,
मिळण कळण मांटीपण मांह।
सूरत तुझ गयण सांगावत,
पलंब न आभड़ीयौ पतसाह।।
खीजे खपे खजीना खाय,
पोरिस सयल दिखाले प्राण।
कपि काबिली न पुगौ कूदे,
खग नै तूझ वडिम खुमांण।।
पूर्णोपमा
रूधो दलै मालदे राउत।
पीड़ि पंचयण जेम पांचाउत।।
..
रचीयौ जेहो जग रमायण।
तेहौ मंडीयौ चीत्रोड़ायण।।
मालोपमा
उभै चन्द्र त्रई तेज चत्र दवत्त प्रभत्ते।
निगम पंच खट बाण सपत रितिहि पर व्रते।।
ऊवह आठ नव सिध्दि तप्प दसनाथ प्रतप्पे।
ईग्यारह अवतार रुद्र बारह थिर थप्पे।।
आलमपनाह जल्लालदी खम्याल मुकटेसवर।
तब किति राम रघुनाथ जिम त्रेविलोक सचराचर।।
महरण चा गरब जिम कुंभ उतपति मुड़े।
खरै तप सूर रै जेम दाहौ खड़े।।
गज चरण तणो गजरूप धाए गुड़े।
जोध सुरजण तणो दरीखानै जुड़े।।
उत्प्रेक्षा
दीठे सत्र सांके कमो जाणि दुत्तो।
रिमां थाट रोले रणंताळ रुत्तो।।
..
उदयासिघ प्रतपै ऐहो।
जाणि गोकळी कान्हक जेहो।
ध्वन्यर्थव्यजन
जहां ध्वनि द्वारा वातावरण साकार हो उठता है, वहां सब ध्वन्यर्थव्यजन अलंकार होता है। डिंगल काव्य में युद्ध की भयानकता के चित्रण में यह अलंकार बहुरूप में प्रयोगायित मिलता है। जाडा द्वारा भी यत्र तत्र इसका प्रयोग अनायास ही हो गया है। उदाहरण है
दड़के दमंमां गम गंमा संम संमां सद्दऐ।
डमरू डहकं डोडि डकं वाणि सकं वद्दऐ।।
..
पाताल पस्सरां रे कीधै कूंजरां।
पूठे पांखरां रे घट घूघरां।।
घट सौ घूघर पूठि पाखर थड़े दाणव थट्ट।
दस देसरा भूपाळ डरपै जाइ जू जू वट्ट
मानवीकरण
अमर खेल अपछर सुवर ईस दे आभरण,
पुणे इम दुरंग रणथभ अणपाल।
आईया दले अकबर घणी सांपनो,
मूझ जो सांपजत धणी जैमाल।।
..
हाम मो वड वडी रही माझळी हीया,
सामी सिरि प्रामीयौ दळा खुरसाण।
पुणे इम दुरंग रणथभ मो ऊपरां,
वीरउत हुवत तौ लहत बाखांरण।।
स्वाभावोक्ति
भूपाळ भूप कळह कूप सेल खूपं सेलयं।
असिमरे असिमर फरे वडफर खजरि ख़ंजर खेलयं।।
मिळी हत्थमत्थे सूर सत्ये बत्थे बज्झऐ।
कमधा पमारां खग्गधारां भड़ उधारां भज्जऐ।।
अर्थश्लेष
खाना खान नवाब रै खांडे आग खिवंत।
पाणी वाळा प्राजले, त्रण वाळा जीवन्त।।
विरोधाभास
खाना खान नवाब रौ, ओही वडो सुभाव।
रीझ्यां ही सरपाव दै, खीझ्या ही सरपाव।।
उपरोक्त दोहा शब्दार्थ वृत्ति दीपक का भी सुंदर उदाहरण है। प्रथम सरपाव शब्द का अर्थ वस्त्र विशेष है तथा द्वितीय सरपाव का दमित करना है। इस प्रकार शब्द और अर्थ की सुंदर आवर्ती कवि के वर्णन नैपुण्य की खूबी है। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि कवि ने अभिव्यक्ति पक्ष को सबल बनाते हुए कतिपय अलंकारों का सहज प्रयोग किया है।
कवि जाडा का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। वह भावों के अनुकूल शब्द-प्रयोग में दक्ष है। उनके काव्य से प्रतीत होता है कि वह सिद्धांत-प्रेमी सत्यभाषी, स्वतंत्रतानुरागी और वीरता का अनन्य पुजारी था। उसने शत्रु-मित्र उभय पक्षीय योद्धाओं के श्रेष्ठ-कर्मों का वर्णन किया है। महाराणा प्रतापसिंह, तथा रावत जयमल की वीरता का जहां उन्मुक्त स्वर में यशगान किया है, वहा बादशाह अकबर, वीरवर खंगार कछवाहा, राव दुर्गभान सिसोदिया आदि की वीरता, धीरता तथा स्वामिभक्ति का भी प्रभावपूर्ण शब्दावली में वर्णन किया है। वीरतादि युगीन श्रेष्ठताओ का वर्णन करना कवि को अभीष्ट रहा है; किंतु किसी राजा, बादशाह एवं योद्धा की मिथ्या प्रशस्ति करना नहीं।
जाडा मेहडू युद्धो के चित्रण तथा युद्धवीरों के शोर्यादि गुणों का कुशल चितेरा है। उसने अपने चरित नायकों की वीरता को वाराह-सिंह, अगस्त्यमुनि-समुंद्र, सिंह-गज, गरुड़-नाग इत्यादि रूपकों के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से सशक्त भाषा में अभिव्यक्त किया है। रावत दुर्गभान और विपक्षी मुजफ्फर को पक्षीराज और पनंग घोषित करते हुए कहा है:-
आदि के वैरि तणे छळ अकबरि,
ओरिस सूरत छड़े अगाहि।
दुरगो गरुड़ आवियो देखे,
सळके पनग मुदाफरसाहि।।
कजि रस-खेद सांमिध्रम कारण,
करग चंच वाउरि करिमाळ।
चढीयो उरि हरिरथ चीत्रोड़ों,
चील चालीयो चामरियाळ।।
वाळण वैर धणी धर वाळण,
विसरि चईनो वांकिम विद।
अचळ तणो धखपंख आवीयो,
मणिधर मुड़ीयौ सुत महमंद।।
पहली अड़स काज काबिल पह,
नख झड़ देयतो खड़ग निहाउ।
राउ खगपति मिळीयो चंदराउत,
रहीयो फणधरि गोरी राउ।।
कवि जाडा के काव्य से ज्ञात होता है कि वह डिंगल के लक्षणाग्रंथो का भी सुज्ञाता था। उसने भाषा के अलंकारों की भांति ही डिंगल काव्य वर्णन-रीति जथाओ के भी यत्र तत्र मोहक प्रयोग किए हैं। रावल मेघराज हापावत महेचा पर रचित गीत में सिरजथा का कवि ने बखूबी निर्वाह किया है उदाहरणार्थ गीत की पंक्तियां दृष्टव्य है–
खळ मंस खड़ग खळ खळीयळ खाटग,
खळ चळ वळ जोगणि पत्र खंति।
प्रबि प्रबि मेघराज निज पाणे,
पाट भगत राउळ पूजंति।।
सत्र धड़ धार सत्रा सिर ईसर,
सत्र चै श्रेणि सकति समरंगि।
अणभंग कमध जूजुवा आपे,
इम आराध करै निय अंगि।।
रिम तणि खग रिम सीस महारुद्र,
रिम चै रुधिर रुद्राणि रंजेय।
हींदूवो तिलक मेघ हापाउत,
दळ दळ खडे सबळ बळी देय।।
जगमाल प्रतिज्ञा का धनी था। उसक़े वचन और कर्म में समरूपता थी। वह वचन देकर कभी मुकरता नहीं था। उसके स्वभाव की इन खूबियों को जाडा ने उसके मृत्युपरांत लिखित एक गीत में अभिव्यक्त की है। सम्बद्ध दो द्वाले अवलोक्य हैं:-
बिहसि बिरदैत दोय खग बांधतौ,
आरंभगुर बोलतौ अपाल।
महि प्रिसणां मारिसी मरिसी,
जाणता इम करिसी जगमाल।।
कड़ीया उभै नीझरण कसतौ,
खरौ बोलतो चीत खरै।
मारण मरण दिसा मेंवाड़ों
कहता टाळो नही करै।।
इस प्रकार कवि जाडा का क्या काव्य क्या भाषा, क्या भाव, क्या चरित्र चित्रण, और क्या अभिव्यक्ति पक्ष सभी प्रकार से उच्चकोटि का है। काव्य नायक, घटना-प्रसंग वर्ण्य विषय आदि के आधार पर जाडा अपने युग का पाक्तेय कवि माना जा सकता है। वह वीररस का कवि है और उसकी कृतियों में वीरता के उदात्त गुणों का ओज-प्रभामय स्वर-गान है। किंतु मध्यकालीन अन्य लक्खा, दुरसा, दूदा, रंगरेला आदि अन्य राजस्थानी कवियों की भांति उसकी भी रचनाएं आशा के अनुकूल उपलब्ध नहीं हुई है। जितनी जो सामग्री मिली है उसी पर फिलहाल संतोष करना पड़ रहा है।
~~सन्दर्भ: जाडा मेहडू ग्रंथावली (श्री सौभाग्यसिंह शेखावत)
~टँकन भवरदान मेहड़ु साता